सबसे अलग, सबसे ख़ास
काव्य साहित्य | कविता दीपक रौनीयार15 Jun 2025 (अंक: 279, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
एक दिन लिखने बैठा
एक प्यारा सा दोस्त है मेरा,
सबसे अलग, सबसे ख़ास।
सोचता रहा— इसके आगे लिखूँ क्या?
क्या वो शब्द होंगे,
क्या वो एहसास,
जो बतलाएँगे,
तू क्यों है,
सबसे अलग, सबसे ख़ास?
एक अरसा बीत गया, समझ में कुछ न आया।
फिर एक दिन ख़्याल आया—
अगर तुझे सच में बयान कर पाया,
तो तू कैसे हुई सबसे अलग, सबसे ख़ास?
सारांश
ना शब्द हैं कोई,
ना कोई एहसास,
जो बयान कर पाए तुझे।
इसलिए तू है—
सबसे अलग, सबसे ख़ास।
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