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शब्द

शब्द! 
तुम क्यों गुम हो जाते हो? 
कहाँ खो जाते हो? 
विशेषकर, ऐसे समय पर 
जब मुझे तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। 
 
सत्य जब मौन होता है
मन अपराधी सा बोझ ढोता है। 
इतना ही नहीं, 
कोई झट से अपनी उदारता का परिचय थमाता है
और एक मीठी सी नसीहत देकर 
तत्काल क्षमा भी कर जाता है, 
उस अपराध के लिए
जो कभी हुआ ही नहीं था। 
 
कभी कभी लगता है कि, 
शब्दों का खो जाना ही उत्तम है, 
किसी भी तरह शान्ति बनी रहे, 
यही सर्वोत्तम है। 
मगर तब नहीं, जब
जल में बहते बिच्छू की व्यथा
और मदद के लिए आतुर साधू की कथा
साधू से पहले अक़्सर बिच्छू ही सुना जाता है। 
मेरी चेतना कुलबुलाती है
पर वाणी कुछ कह नहीं पाती है। 
शब्द! 
तुम कहाँ खो जाते हो? 
 
तुमसे भी कभी कभी भय होता है, 
क्योंकि तुम्हारे माध्यम से ही परिचय होता है। 
हम तुम्हारे द्वारा ही गढ़े जाते हैं, 
तुम नहीं, वास्तव में हम पढ़े जाते हैं। 
तुम्हारी पारदर्शिता, 
और निष्पक्षता, इसीलिए डरा जाती है, 
क्योंकि न चाहते हुए भी 
सच्चाई उजागर हो ही जाती है। 
सत्य को सामने लाने से क्यों घबराते हो? 
शब्द! 
तुम कहाँ खो जाते हो। 
 
अभिमान को स्वाभिमान में घोलना, 
ज़रूरी तो नहीं। 
हर प्रश्न के उत्तर में कुछ बोलना, 
ज़रूरी तो नहीं। 
प्रश्न को यदि उत्तर की दरकार नहीं, 
तो ऐसा उत्तर देना भी स्वीकार नहीं। 
प्रश्न को प्रश्न ही रहने दो
हे शब्द! मुझे गरिमा में ही रहने दो। 
'सत्य' प्रकृति में परिलक्षित है, 
हर उत्तर 'समय' के पास सुरक्षित है। 
 
मुझे ज्ञात है, 
यह आम बात है, 
कोई राज़ नहीं है
'भाषा कभी शब्दों की मोहताज नहीं है'। 
जहाँ कहने के लिए शब्दों का अभाव है, 
वहाँ अशाब्दिक भाषा का बेहतर प्रभाव है। 
शब्द! 
तुम और अच्छे हो जाते हो, 
जब कभी-कभी खो जाते हो। 
 
शब्द! 
तुमसे मेरा अनुरोध है, विनय है, 
जब भी असामान्य समय है, 
तुम याद मत आना, 
विस्मृत हो ही जाना। 
इस तरह तुम्हारा भी मान रह जायेगा, 
और मेरा भी सम्मान बच पायेगा। 
मैं मौन रहूँगा
परिस्थितियों को देखूँगा, समझूँगा, 
मगर चुप रहूँगा, 
कुछ न कहूँगा। 
कोई इसे मेरी विवशता कहे, 
अथवा कुछ और कहे, 
मैं ख़ुशी-ख़ुशी सहूँगा, 
सदा तुम्हारा विशेष आभारी रहूँगा। 
 
भले ही मन कहता रहे-
'शब्द! 
तुम क्यों गुम हो जाते हो? 
कहाँ खो जाते हो? 
विशेषकर, 
ऐसे समय पर 
जब मुझे तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।

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