शहर में अब न सम्भावना है
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र कुमार15 Jun 2022 (अंक: 207, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
प्रभात का समय था,
अरविंद वाटिका का किनारा।
चन्दौली शहर में वह,
करती थी गुज़ारा॥
बीती रात हुई थी उस
वाटिका में किसी की शादी।
सुबह के समय तक
सोई थी शहर की आबादी॥
बाईपास के किनारे
फेंके गए थे उच्छिष्ट।
थी वह खोजती उसमें
अपने क्षुधार्थ अभीष्ट॥
देखकर ये दृश्य
द्रवित हुई मेरी आँखें।
उस बेचारी की चल
रही थीं धीमी साँसें॥
वृद्धा भिखारिन ने दृष्टि
ऊपर की बड़ी सदमे में
और . . . फिर से जुट गयी
रात के भूखे पेट को भरने में।
कुछ शहरी रईस व हुक्काम
अपने 'कुत्तों' के साथ
'मॉर्निंग वॉक' हेतु निकले थे
और सीधे चले जा रहे थे।
शायद उनके लिए वह
बेमतलब की चीज़ थी।
फिर मैंने सोचा, “चलो भैया!
शहर में अब न सम्भावना है।”
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RAHUL KHARWAR 2022/07/02 07:55 PM
बहुत ही मार्मिक ढंग से आपने एक वृद्धा भिखारिन का समाज के सामने चित्रण प्रस्तुत किया है।। लेखक समाज के कुरीतियों को अपने लेख के माध्यम से चित्रित करता है।। आप बहुत ही अच्छे ढंग से लिखे हैं ,आपको धन्यवाद , एवम शुभकामनाएं अगले लेख के लिए सर।।।।