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कार वाले का ‘लिंक’ हर जगह होता है

 

है ‘लिंक’ तगड़ा उस कार वाले का, 
जब वह पकड़ा जाता है ‘चेकिंग’ में। 
लगाता है तुरत फोन अपने ‘लिंक’ को, 
सिपाही को थमा देता है फोन वह। 
‘लिंक’ वाला कहता रहता है कुछ उधर से, 
जो नहीं सुन पाता बग़ल में खड़ा साइकिल सवार। 
जो इस कुतूहल से खड़ा रहता है कि, 
क्या होगा अब कार वाले साहब का। 
लेकिन ये क्या! . . .
जाने को कह देता है सिपाही उस कार वाले को। 
 
है ‘लिंक’ तगड़ा उस कार वाले का। 
तब, जब वह कुचल देता है किसी को, 
मर गया है वह कुचला हुआ आदमी। 
क्या होगा अब साहब का? . . . 
मन में सोच रहा है साइकिल सवार। 
अरे! कुछ नहीं होगा। कुछ नहीं होता, ‘ऐसों’ का। 
‘लिंक’ तो है ना। अभी मिलाता हूँ फोन। 
हो जाता है समझौता उस कुचले का, 
देना है बस पच्चीस हज़ार रुपए उसके बेवा को। 
दाह के बाद भी तो बच ही जाएँगे कुछ रुपए, 
कहते हुए साहब चल देते हैं। 
 
है ‘लिंक’ तगड़ा उस कार वाले का। 
तब, जब रहता है बीमार कोई उसका, 
पहुँचते ही अस्पताल के गेट पर, 
ठोकता है सलाम गेट पर खड़ा चौकीदार। 
ज़िले का नामी अस्पताल है यह। 
“उफ्फ! बड़ी भीड़ है।” साहब ने बुदबुदाया। 
पर्चियाँ तो बड़ी ऊँची हैं, डॉक्टर के पास, 
नंबर आने में तो दिन ही निकल जायेगा। 
कोई बात नहीं ‘लिंक’ तो है ना। 
साहब ने मन ही मन मुस्काया, 
फिर किया फोन तुरत, न जाने कहाँ? 
कंपाउंडर ने ज़ोर से नाम पुकारा, 
साहब तुरत गए अन्दर . . .
डॉक्टर ने मुस्कुराकर किया स्वागत। 
अच्छे से देखभाल कर दवाइयाँ लिखीं। 
इधर, सोच में डूबा जा रहा था वह साइकिल सवार, 
कि मैं तो परसों से ही लगा रहा हूँ चक्कर . . .
 इस अस्पताल का और . . .
देख भी नहीं पाया हूँ डॉक्टर की शक्ल। 
 
सच में, ‘लिंक’ तगड़ा है उस कार वाले का। 
वह ‘लिंक’, जिसके माध्यम से . . . 
नहीं रुकता उसका कोई काम, 
चाहे बैंक का, चाहे ऑफ़िसों का, 
चाहे तहसील का, चाहे एडमिशन का, 
चाहे किसी ख़ास परमिशन का, 
नहीं रुकता काम . . . क्योंकि, 
है ‘लिंक’ तगड़ा उस कार वाले का। 

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