ताना-बाना
काव्य साहित्य | कविता अंकुर सैनी1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
गर रूठ जाए ज़माना कभी
तो बरगद का पेड़ लगा देना
एक ज़माने बाद ज़माना,
बरगद की लटकती शाखाओं को रूह समझ तेरी
मन्नतों के धागे बाँधेगा।1।
गर कभी छुपाना पड़े ख़ुद को
अपने आँसुओं की आड़ में
तो गीली मिट्टी से सने हाथों को
मस्तक का स्पर्श करा देना;
जग पूछे यदि इस इल्म का राज़ तुमसे
तुम तो वंसत का राज़ बता देना।2।
जब कभी झुकती दिखे जीत-प्रीत तो
ना ‘प्रयास’ को हार ठहरा देना
जीत-हार तो सार नहीं!
बस राह में क्षणिक बदलाव ला देना
झुकती शीशम की डालियों को तुम
गगन की राह दिखा देना।3।
जो पूछे कभी अकाल काल का
कि अंकुर का काज बता देना,
ना बता देना तू हाल आज का
दीदार करा उसे अंनत आकाश का
बस वसंत का राज़ बता देना।4।
गर उँगली उठे संघर्ष की तुम पर
तो किताबों का ज्ञान ना रटा देना
उड़ती धूल की तीव्र गति
के समक्ष उसको ला देना
पर ध्यान रहे . . .
पलकें रहे पूर्ण खुली उसकी
ना छाता उस पर ला देना,
बस संघर्ष का प्रमाण चखा देना।5।
गर उलझा रहा तुझे भाषा का चक्कर
ना शब्दों का घोल बना देना
ये इंग्लिश विंग्लिश तो मिटती रहती
तुम बिज़ी/busy शब्द मिटा देना
बस रूपक का साज़ सजा देना;
अंकुर तो चले चाल धीमी अति
अंकुर तो चले चाल धीमी अति
तुम हिन्दी में सन्धि का छौंक लगा देना
उन्हें हिन्दी का राज बता देना
बस हिन्दी का राज बता देना। 6।
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