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तीन चार का समय

 

 

गाँव की छोटी-सी पगडंडी से होकर वह लड़का तेज़ क़दमों से शहर की बस पकड़ने जा रहा था। कॉलेज का पहला पीरियड मिस हो जाए, तो नोट्स मिलते नहीं और लेक्चरर की डाँट अलग। ठंडी हवा के झोंके में उसका बैग उसकी पीठ से टकरा रहा था, और आँखों में पढ़ाई के सपनों का उजाला था। 

रास्ते में एक अधेड़ उम्र का आदमी, जिसने फटा पुराना कुर्ता पहना हुआ था और आँखों में झुर्रियों के साथ अनगिनत कहानियाँ छुपी थीं, उससे धीरे से पूछा, “बेटा, टाइम क्या हुआ है?” 

लड़के ने कलाई घुमाकर घड़ी देखी। 

“तीन चार हो रहे हैं,” उसने चलते-चलते कहा। 

आदमी ठिठक गया। 

चेहरे पर उलझन का बादल उमड़ आया। 

“तीन चार . . .? मतलब क्या . . .? तीन बजे हैं कि चार?” 

लड़का कुछ नहीं बोला। समय नहीं था, बस स्टेशन अभी दूर था और बस का हॉर्न जैसे उसके दिल की धड़कनों से जुड़ गया था। उसने सिर झुकाया और तेज़ी से आगे निकल गया। 

अधेड़ आदमी पीछे खड़ा रहा . . . जैसे किसी पहेली में अटका हो। 

दो दिन बाद क्लास में प्रोफ़ेसर ने एक बात कही, “सिर्फ सच्चाई नहीं, संप्रेषण भी ज़रूरी है। बात कितनी सही है, उससे ज़्यादा ज़रूरी है कि सामने वाला क्या समझ पाया।”

लड़का उसी पल ठिठका। 

उसे वो अधेड़ आदमी याद आ गया, “तीन चार” की पहेली में उलझा चेहरा। 

सही कह कर भी वो ग़लत साबित हुआ था। 

उस दिन उसे अहसास हुआ कि ज़िंदगी में हर बात को “बिलकुल सही” कहना ज़रूरी नहीं, कभी-कभी बात को इतना सरल और साफ़ कहना चाहिए कि सामने वाला समझ सके। वरना सच्चाई भी भ्रम बन जाती है। 

अब जब कोई उससे समय पूछता है, तो वो मुस्कुराकर कहता है:

“अभी तीन बजकर चार मिनट हुए हैं।”

क्योंकि अब उसे समझ आ गया है, 

हर सही बात, सही तरीक़े से कहनी चाहिए-वरना उसका मतलब बदल सकता है। 

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