तेजपाल सिंह ‘तेज’: एक वन मैन आर्मी
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा ईश कुमार गंगानिया15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: आत्म वृत्त–तेजपाल सिंह ‘तेज’
भाग एक: बियोंड पैराडाइम (पृष्ठ: 279 ₹150/-)
भाग दो: बियोंड पैराडाइम (पृष्ठ: 213 मूल्य ₹180/-)
प्रकाशक: बुक रिवर्स (मोबाइल:91-9695375469)
वर्षों साथ रहने के बावजूद भी ज़रूरी नहीं कि हम व्यक्ति विशेष को जान पाते हैं। ऐसा भी नहीं है यह कोई रॉकेट साइंस जैसा मुश्किल काम है। लेकिन व्यक्ति का परिवेश परिवर्तनशील है इसलिए व्यक्ति की गतिविधियाँ भी परिवर्तनशील होती हैं। कई बार हम व्यक्ति की समसामयिक गतिविधियों को ही व्यक्ति के व्यक्तित्व के रूप में देखने लगते हैं। अक़्सर इसे ही स्थायी पहचान के रूप में मानने लगते हैं। जब बड़े भाई तुल्य टी.पी. सिंह ने अपना आत्मवृत्त-दोनों भागों पर दृष्टिपात किया तो में दंग रह गया। मैंने उनका यह रूप तो पहले कभी देखा ही नहीं था। मैं भ्रम में था कि मैं टी.पी. सिंह को जानता हूँ। मुझे एहसास हुआ कि किसी भी व्यक्ति को जानना आसान काम नहीं है और तेज साहब को तो बिल्कुल भी नहीं, ख़ैर . . .।
तेजपाल सिंह का जन्म 1949 में बुलंदशहर ज़िले के एक छोटे से गाँव अला बास बातरी के एक साधारण परिवार में हुआ था। आपके सातवीं कक्षा में आने तक माता-पिता दोनों का ही देहांत हो चुका था। दसवीं कक्षा तक की शिक्षा बड़े भाई की देख-रेख में हुई। बारहवीं कक्षा ख़ुद मेहनत-मज़दूरी करके व कॉलेज के प्रधानाचार्य रामाश्रय शर्मा जी (दिवंगत) द्वारा प्रदत्त आर्थिक योगदान और उनकी मेरे प्रति आत्मीयता के चलते उत्तीर्ण की। 1969 में बारहवीं करने के बाद रोज़गार की तलाश में आगमन हुआ। सबसे पहले आपने डी.टी.सी. में कंडक्टर, दूसरे एम्पलोईज़ प्रोवीडेंट कमीश्नर ऑफ़िस में नौकरी करते हुए आप 1974 में भारतीय स्टेट बैंक में टंकक-लिपिक के पद पर नियुक्त हुए। यहाँ नौकरी करते हुए आपने मेरठ विश्वविद्यालय से 1977 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि इतनी बाधाओं से जूझते हुए तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने अब तक का निजी-पारवारिक और सामाजिक-साहित्यिक सफ़र किस तौर पूरा किया है। साहित्यिक उपलब्धि के तौर पर अब तक उनकी ग़ज़ल, कविता, और चार-विमर्श की लगभग दो दर्जन से भी अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं—दृष्टिकोण, ट्रैफ़िक जाम है, गुज़रा हूँ जिधर से, ट्रैफ़िक जाम है, हादसों के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में तथा चलते-चलते (6 ग़ज़ल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में, धमाचौकड़ी, खेल-खेल में अक्षर ज्ञान (बालगीत: दो खंड), कहाँ गई वो दिल्ली वाली (शब्द चित्र), सात निबन्ध संग्रह–शिक्षा मीडिया और राजनीति, दलित-साहित्य और राजनीति के सामाजिक सरोकार, राजनीति का समाज शास्त्र, लोक से विमुख होता तंत्र, मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र, राजनीति और मानवाधिकार के प्रश्न और ‘कानया की वापसी’ (लघु नाटिका)–(इसका पाँच कड़ियों का टीवी सीरियल बन चुका है)। अब ये पुस्तक रूप में भी उपलब्ध है। दो कविता संग्रहों और माननीय शिक्षाविद आर.सी. भारती जी की आत्मकथा का सम्पादन कार्य भी किया। तेजपाल सिंह ‘तेज’ साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ (पत्रिका) के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी रहे हैं। आपके हिंदी-साहित्य में योगदान के दृष्टिगत हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। और भी अनेक नागरिक व सामाजिक सम्मान से सम्मानित। एस.ऐन.के.पी. राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सह आचार्य (हिंदी विभाग) में तैनात माननीय देवी प्रसाद जी द्वारा लिखित “तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन सरोकार” शीर्षांकित पुस्तक का भी वर्ष 2019 में प्रकाशित की गई। कुकू एफ़एम पर तीन ग़ज़ल संग्रह व एक बाल गीतों की ऑडियो बुक के रूप में आना एक बड़ी बात है।
हाल ही उनके आत्म वृत्त (आत्म कथा) “बियोंड पैराडाइम” शीर्षक से दो भागों में प्रकशित हुआ है। दोनों को मैंने अंतरमन से पढ़ा और जाना कि इनका जीवन स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में एक अधिकारी होने या साहित्यकार होने तक ही नहीं सिमटा है। आत्मकथा के पहले भाग में टी.पी. सिंह लिखते हैं कि उनका लालन-पालन का भार उनकी भाभी ने उठाया, इसलिए वे अपनी भाभी को “भाभी माँ” का दर्जा देते हैं। ऐसे मामलात कम ही देखने को मिलते हैं कि किसी भाभी ने अपने नवजात देवर को अपनी छाती का दूध पिलाकर पाला-पोसा हो। उन्होंने अपनी माँ को एक कूटनितिज्ञ एवं समाज-सेविका के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने अपने प्रेम-प्रसंगों को कुछ अलग ही अंदाज़ में दर्ज किया है। एक को कविता के रूप में तो दूसरे को कहानी के रूप में व्यक्त किया है। इससे पहले मुझे कोई ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिला है। उनका यह अलग ही अंदाज़ है।
यदि इनकी आत्मकथा का दूसरा भाग बियोंड पैराडाइम (भाग-2) नहीं आता तो बियोंड पैराडाइम (भाग-1) से इनके व्यक्तित्व को समग्रता में समझना मुश्किल था। भले ही इनकी आत्मकथा दो खंडों में प्रकाशित हुई है लेकिन इनका व्यक्तित्व इन किताबों में व्यक्त शब्दों से कहीं व्यापक है। ख़ैर . . .
दोनों पुस्तकों की विषय-वस्तु नितांत अलग-अलग है, पहले भाग में पारवारिक और साहित्यिक सफ़र का तो दूसरे भाग में पत्रकारिता और समाज के प्रति दायित्व का उल्लेख है। दोनों भागों के मर्म को एक आलेख में समेटना यूँ तो बहुत कठिन काम है, फिर भी मैंने ये काम करने का जोखिम उठाया है।
शुरू में टी.पी. सिंह को मैं एक ग़ज़लकार के रूप में जानता था। उनसे चर्चा के दौरान पता चला कि वे अख़बारों में विभिन्न मुद्दों पर अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहे हैं। वे एक समाजसेवी संस्था “दृष्टिकोण” के बैनर तले साहित्यकारों को बैंक कालोनी यानी अपने निवास स्थान पर गोष्ठियाँ भी कराते रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार इसमें शिरकत करते रहे हैं। ये काम वे मेरे उनसे संपर्क में आने से पहले करते आए हैं। जब हमने “अपेक्षा” में उप-संपादक के रूप में काम किया, मेरा उनमें मौजूद एक धैर्यवान पाठक और कुशल प्रूफ़ रीडर से साक्षात्कार हुआ। जब मैं अपनी पुस्तक ‘अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज’ और ‘आजीवक’ पर अपनी किताब लिख रहा था तो वे एक बेबाक परामर्शदाता, समर्पित व निःस्वार्थ मित्र के रूप में सामने आए। शायद यह एक दूसरे की संगत का ही असर रहा होगा कि मैंने उनके हुनर को अपनाया और एक ग़ज़ल संग्रह लिख डाला। लेकिन ‘तेज’ साहब तो ठहरे ‘तेज’, उन्होंने ग़ज़लगोई के साथ-साथ जब गद्य को अपनाया तो आधा दर्जन भर किताबें समसामयिक विषयों पर लिख डालीं। समाज व राजनीति की कुरूपता की बखिया उधेड़ डाली।
परिवार की बातें साझा करने में भी वे मुझसे कोई दूरी नहीं बरतते। मैं यह तो जानता था कि अपने आसपास की समस्याओं को लेकर वे अपनी तीखी क़लम विभिन्न विभागों के अधिकारियों व अख़बारों के लिए भी चलाते रहे हैं। लेकिन जब मैंने आत्मवृत्त के दोनों भागों का एक साथ रखकर पढ़ा तो मैं दंग रह गया कि उन्होंने शायद ही कोई मुद्दा शेष छोड़ा होगा जिस पर क़लम न चलाई हो। ऐसे मुद्दों पर भी जहाँ जोखिम की संभावनाएँ बराबर बनी रहती हैं। अब मुझे समझ आया कि टी.पी. सिंह में ‘अकेले चलो रे’ का दमख़म भी है। लेकिन मुझसे रुका नहीं गया और मैंने मज़ाक में टिप्पणी कर डाली—“मैंने आप जैसा पंगेबाज़ नहीं देखा।” उन्होंने मुस्कुराकर कह दिया कि आपने मुझे सही पहचाना। मुझे कहने में कोई संदेह नहीं कि इनका जुझारूपन सरहद पर तैनात किसी सैनिक से कम नहीं है। इन्होंने अपनी संस्था ‘दृष्टिकोण’ को अपना कंधा बनाया और एक सैनिक की तरह निरंतर फ़ायरिंग करते रहे।
आमतौर पर सरकारी कर्मचारी अपने आसपास हो रही अनियमितताओं या समस्याओं पर चुप्पी साधे रखता है। किसी प्रकार के पत्राचार से डरता है। लेकिन टी.पी. सिंह इस मामले में एक अपवाद हैं। उन्होंने सारे मिथकों को तोड़कर ऐसा कोई दरवाज़ा नहीं छोड़ा जिस पर दस्तक न दी हो। दरवाज़े के पीछे भले ही कोई विधायक, सांसद, मंत्री, नेता प्रतिपक्ष ही क्यूँ न हो, टी.पी. सिंह ने अपनी बात डंके चोट पर रखी। उन्होंने देश के प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर तक की शिकायत इलेक्शन कमीशनर टी ऐन शेषन को कर दी थी। ये अटल बिहारी वाजपेयी के बुद्धिस्टों को आरक्षण के विरोध पर भी चुप नहीं बैठे और अपनी क़लम चला दी। इसके साथ वे एक अन्य पत्र में एतराज़ ज़ाहिर करते हैं कि डॉ. बी.आर।. अम्बेडकर की स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया था लेकिन प्रचलन में क्यूँ नहीं, इस पर सवाल उठाते हैं और वस्तुस्थिति की समीक्षा की आह्वान करते हैं।
ग़ौरतलब है कि आत्मकथा व्यक्ति की निजता के शब्द चित्रण से जब समाज यानी परिवेश को समाहित कर लेते हैं तो इसे आत्मवृत्त कहा जाना चाहिए। लेखक का आग्रह भी इसे आत्मवृत्त कहे जाने का है। जब हम ‘तेज’ साहब के ‘बियोंड पैराडाइम’ के दोनों भागों को एक साथ जोड़कर देखते हैं तो आत्मवृत्त का उत्कृष्ट रूप से हमारा साक्षात्कार होता है। किसी व्यक्ति के आत्मवृत्त का लिखा जाना शब्दों की भीड़ जुटा लेना भर नहीं होता बल्कि खट्टे-मीठे अतीत को वर्तमान में पुन: जीना होता है। उसका तटस्थ, निष्पक्ष एवं ईमानदार होना अपेक्षित है। अपेक्षा यह भी होती है कि लेखक अपने मौलिक विचारों को प्रकट करता हुआ भविष्य दृष्टा के रूप में विचारों की प्रस्तुति करे तो उसका भावी पीढ़ी के लिए महत्त्व बढ़ जाता है। तेज साहब के आत्मवृत्त इसका जीता-जागता प्रमाण हैं।
टी.पी. सिंह का डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित होना किसी से छिपा नहीं है। वे उनके विचारों और उनसे जुड़ी संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर भी बारीक़ नज़र रखते हैं। उन्होंने वॉयस ऑफ़ द वीक में लिखा—डॉ. अम्बेडकर ही संविधान निर्माता हैं, पर अपनी प्रतिक्रिया दी और कहा—‘बाबा साहब के प्रति किसी प्रकार की शरारत व राजनीति ठीक नहीं है।’ वे बाबा साहब के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर अपनी क़लम चलाते रहे। वे दलित साहित्य के प्रोत्साहन के लिए गोष्ठियाँ भी कराते रहे। समाज में मौजूद विकृति के निवारण के लिए वे समस्या को अनदेखा करने की बजाय इसे सार्वजनिक करने के पक्षधर रहे हैं। इसी के चलते जब ‘हिन्दू धर्म की पहेलियाँ नामक पुस्तक पर रोक लगी तो उन्होंने हिन्दुस्तान समाचार पत्र में इसके छपने से रोकने की निंदा की। इसका प्रेस रिलीज़ भी जारी किया गया। इसके लिए भाजपा को कठघरे में खड़ा किया। इतनी कसरत के बाद आख़िर ‘रिडिल्स इन हिंदुइज़्म’को प्रकाशित करना ही पड़ा।
जैसा कि इन्हें पढ़ने पर पाते हैं कि लेखक स्वयं स्वीकार करता है—‘मेरे जीवन की कहानी किसी एक वक़्त की कहानी नहीं है . . . बिखरी हुई कहानी है। जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं . . . बाल्यकाल, बचपन, यौवनावस्था और आख़िर बुढ़ापा . . . सबको इन हालातों से गुज़रना होता है . . .। मेरी कोशिश रही है कि मैं अपनी कहानी को परत-दर-परत खोलता हुआ अपने जीवन के हल्के-फुलके, ज्ञात-अज्ञात, अनछुए पहलुओं को शब्दबद्ध करूँ। सच्चाई एवं जीवन की यथार्थ स्थिति का बोध कराऊँ . . .। मेरी यह कहानी कुछ ऐसे समय में लिखी जा रही है कि जबकि आज समग्र दृष्टि से भारतीय समाज में ही नहीं, अपितु विश्व पटल पर भी आए दिन मानवता पर नाना विधि से आतंकवादी हमले जारी हैं। कहीं ऐसे हमलों का कारण आर्थिक है तो कहीं धार्मिक। आर्थिक और धार्मिक आतंक में जो ख़ास अंतर है, वह है—शोषण और दमन का। सो ऐसे परिवेश का प्रभाव पड़ने की पूरी आशंका है।”
एक मामले में उन्होंने दूरदर्शन के एक प्रोग्राम ‘समता के लिए संघर्ष: महाड़ आन्दोलन’ के विरोध में महा निदेशक को पत्र लिखकर बताया—“यहाँ दिल और दिमाग़ दोनों ही सामाजिक रुग्णता व मनुवादी दासता से उबर न सके। कृपया अपने अंतःकरण में झाँकें और सच्चाई को स्वीकारें। यह उनकी जागरूकता और सूक्ष्म अवलोकन का ही परिणाम है कि उनकी नज़र से कोई भी मसला आसानी से नहीं छूट सकता।”
उन्होंने हिन्दी अकादमी द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर होने वाले काव्य पाठ को ‘बंदर बाँट’ की संज्ञा देते हुए सवाल उठाया और मुख्यमंत्री को भी ज्ञापन देकर मुद्दे को रेखांकित करते हुए बताया कि चुटकुलेबाज़ी ही आज की कविता हो गई है। अकादमी की पत्रिका में प्रकाशन लेकर भी सवाल उठाया। पत्रिका में जो सामग्री प्रकाशित होती है उससे अच्छा-खासा मेहनताना भी जुड़ा हुआ है। उन्होंने प्रकाशन के मामले में अनियमितताओं की बात की। उन्होंने साहित्य के गिरते स्तर औरचारित्रिक पतन को लेकर भी अपनी चिंता ज़ाहिर की है। यह उनके साहित्यिक सरोकार को ही नहीं दर्शाता बल्कि उनके लोकतंत्र में विश्वास को भी पुख़्ता करता है। इन्हीं मूल्यों के प्रभाव में वे मेरठ विश्वविद्यालय में जाति प्रमाण पत्र की फोटो कापी को मान्यता न देने और मूल प्रति की माँग पर अलग-अलग दरवाज़े खटखटाते हुए जनहित याचिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट यानी मुख्य न्यायाधीशकी चौखट पर पहुँच जाते हैं और सफलता हासिल करते हैं।
टी.पी. सिंह का शिक्षा के प्रति विशेष रुझान रहा है। इसे उनकी प्राथमिकता भी कह सकते हैं। यद्यपि वे निरंतर बैंक में सेवारत रहे और उनके पास समय का नितांत अभाव था। इसके बावजूद उन्होंने अपने आसपास के कई स्कूलों की समस्याओं का मसला संबंधित विभागों के समक्ष पत्रों और अख़बारों के ज़रिए उठाया और चौबीस स्कूलों के कायाकल्प का बीड़ा उठाया। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार उनके प्रयासों के चलते 18 स्कूलों की इमारतों का निर्माण भी सम्भव हो पाया। स्कूलों में बैठने की व्यवस्था के अभाव, टेंटों में चलने के कारण समस्याओं के अंबार पर बराबर अपनी नज़र गढ़ाए रखी। वे प्रत्येक स्कूल की अलग-अलग समस्या को बहुत ही बारीक़ी से परखते रहे हैं। उसी के आधार पर वे उसे अधिकारियों और अख़बारों में बड़ी शिद्दत से उठाते रहे हैं। उनके आत्मवृत्त का दूसरा भागभाग ऐसे कार्यों का बख़ूबी रेखांकित करता है। मुझे टी.पी. सिंह का ‘दृष्टिकोण’ जो एक गैर-राजनीतिक और ग़ैर-आर्थिक प्लेटफार्म है किसी मधुमक्खी के छत्ते से कम नहीं लगता है।
स्कूलों को लेकर उनके बड़े जबरदस्त शीर्षक देखने को मिलते हैं। मैं पाठकों की सुविधा के लिए कुछ शीर्षकों के उल्लेख का मोह नहीं त्याग पा रहा हूँ। मसलन, “तम्बुओं में चल रहे हैं स्कूल।” शिक्षा का मज़ाक-सरकारी कम्पोज़िट मॉडल स्कूल में अभी तक प्रधानाचार्य नहीं। मंडोली में छात्राओं के हिसाब से कमरे, डेस्क व अन्य सुविधाओं का अभाव। मौसम के कारण छात्रों की छुट्टी कर दी जाती है। टाट-पट्टियाँ तक नहीं। राष्ट्रीय सहारा-प्रशासनिक उपेक्षा की वजह से “वह बात नहीं रही मंडोली के स्कूल में।” टेंट में चल रहे स्कूल, छात्रों द्वारा सफ़ाई की जिम्मेदारी का सवाल, छात्र ख़ुद ही करते हैं सफ़ाई। ‘शिक्षा सबके लिए’ नारे का पोस्टमार्टम: शहरी और ग्रामीण स्कूलों में उपलब्ध सुविधाओं के स्तर में अंतर को लेकर भी उन्होंने अपनी क़लम को चलाया।
टी.पी. सिंह अपनी संस्था दृष्टिकोण के माध्यम से प्राइवेट स्कूलों के कारण होने वाली समस्याओं के प्रति भी मौन नहीं रहे। वे संध्या प्रहरी में लिखते हैं—“शिक्षा के नाम पर दुकानदारी पनपी-सामाजिक असमानता की जड़।” पुस्तक बताती है कि उन्होंने अपने बहुत ही सीमित संसाधनों से स्कूलों में जूते व स्कूल ड्रेस के वितरण की भी व्यवस्था की। जब उनकी नज़र मंडोली में ख़ाली पड़ी सार्वजनिक ज़मीन पर पड़ती है तो छात्रों में अध्ययन की आदत के विकास के लिए उन्होंने उस ज़मीन को लाइब्रेरी व वाचनालय खोलने लिए पत्राचार किया। किन्तु उनका ये प्रयास प्रशासनिक प्रक्रिया में उलझकर रह गया।
उनके आत्मवृत्त से पता चलता है कि उनकी हृदय में शिक्षा और अपने शिक्षकों के प्रति बेहद सम्मान रहा है। शायद स्कूलों की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास इसका जीता जागता उदाहरण है। यह मेरे जीवन का पहला अनुभव है कि किसी छात्र ने अपने विद्यालय के शिक्षकों का दिल्ली बुलाकर सम्मान किया हो। मुझे लगता है कि ‘मानव सेवा समिति’ व ‘दृष्टिकोण’ के बैनर तले आयोजित “शिक्षक अभिनंदन समारोह” का आयोजन के पीछे उनके द्वारा निजी शोहरत पाना नहीं। अपितु यह संदेश देना रहा होगा कि लोग अपने शिक्षकों का सम्मान करें जिनके मार्गदर्शन की बदौलत वे बड़े-बड़े पदों पर बैठे हैं।
आपके पत्रों और समाचार पत्रों के इस संकलन में बैंक कालोनी और मंडोली क्षेत्र की समस्याओं के निवारण के लिए टी.पी. सिंह की एक बड़ी लंबी जंग नज़र आती है। उनके पत्राचार में बड़े अनोखे शीर्षक देखने को मिलते हैं। अख़बार में बैंक कालोनी में बिजली समस्या को उठाते हुए वे एक ट्राम्स्फोर्मर और समीप में स्थित बिल्डिंग का बड़ा चित्र का अंकन करते है। नव भारत टाइम्स में वे लिखते हैं—‘लाल डोरा बस्तियों में सुविधाओं का अभाव’, ‘गंदे पानी से भरा कटोरा लगता है मंडोली’ (राष्ट्रीय सहारा)। राष्ट्रीय सहारा में वे फिर लिखते हैं—‘बैंक कॉलोनी-सड़कें ऐसी कि रिक्शा वाले भी मुँह बनाएँ।’ वे अपर सचिव (भूमि अधिग्रहण) को बार-बार लिखते हैं—‘दिल्ली में वितरित लाल डोरा की ज़मीन पर बनी बस्तियों में सुविधा क्यूँ नहीं है?’ बिजली पानी व सड़कें नालियों आदि की उपयुक्त व्यवस्था के संदर्भ में निरंतर पत्राचार यहाँ देखने को मिलता है . . . बैंक कालोनी की समस्याओं को लेकर वे उप-सचिव, भारत सरकार को अनेक पत्र लिखते हैं। वे कालोनी के इलेक्ट्रीफिकेशन को लेकर भी लम्बी लड़ाई लड़ते हैं। और अंतत: सफलता हासिल करते हैं कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उन्होंने कालोनी में सामान्य सुविधाओं लिए जो लम्बी लड़ाई लड़ी। और बाद में उन्होंने 2002 में शालीमार गार्डन में शिफ़्ट कर लिया।
उनकी पत्र-व्यवहार की जंग में डीटीसी सेवा भी शरीक रही है। बसों की सेवा प्रारंभ कराना, केन्द्रीय सचिवालय की सीमित बस स्टाफ की बसों में विकलांगों के लिए सुविधा की माँग उन्होंने बराबर रखी। उन्होंने विकलांगों के लिए रेड लाइन (ए.सी.) बस में भी पास सुविधा देने की लड़ाई लड़ी और जीती भी। उनका ऐसा जुझारूपन उन्हें सैनिकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है।
टी.पी. सिंह एक ऐसी शख़्सियत हैं कि उन्हें जहाँ भी कोई ख़ामी नज़र आई, वे वहीं भिड़ गए। उनका दायरा अपनी कालोनी या पूर्वी दिल्ली तक सीमित नहीं था बल्कि उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र को किसी सीमा को मोहताज नहीं बनाया। एक बार भरत झुनझुनवाला ने राष्ट्रीय सहारा में ‘भ्रष्टाचार की जड़ें संविधान में हैं’ नामक एक लेख लिख दिया तो टी.पी. सिंह राष्ट्रीय सहारा के संपादक से भिड़ गए और संपादक को एक आलेख ‘झुनझुनवाला का आलेख न अर्थवान और न ही प्रासंगिक’ लिख डाला।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इनके दोनों आत्मवृत्त इस लिए भी पठनीय हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी भी मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकता है। उसे अपने अधिकार हासिल करने के लिए किसी अधिकारी के पद या किसी राजनेता से डरने की ज़रूरत नहीं है। मगर शर्त यह कि इसके लिए धैर्य और शालीनता की ज़रूरत होती है। टी.पी. सिंह का जीवन इसका जीता जागता उदाहरण है।
आत्मवृत्त के दूसरे भाग पर बारीक़ी से विचार करें तो पाते हैं कि इनसे कोई भी साधारण व्यक्ति पत्र लेखन की कला भी सीख सकता है। अलग-अलग पदाधिकारी से कैसे डील करना है, यह सीखा जा सकता है। यह भी जाना जा सकता है कि अपनी समस्याओं के समाधान के कैसे-कैसे और कौन-कौन से तरीक़े अपनाए जा सकते है। ऐसे ही प्रयास हमें एक देश का ज़िम्मेदार नागरिक बनाते हैं। जब देश के नागरिक ज़िम्मेदार होंगे तो देश को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने से कोई नहीं रोक सकता।
अंत में कहना ज़रूरी है कि यह टी.पी. सिंह का बुलंद जज़्बा है कि रुग्णावस्था के चलते आजकल वे कम्प्यूटर पर कुछ काम नहीं कर पा रहे हैं। बैठने में उन्हें काफ़ी दिक़्क़त महसूस हो रही है। लेकिन स्वास्थ्य की अन्य अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते भी उनके होंसलों में कोई कमी नहीं आई और इस नई और अपने क़िस्म की अलग किताबों को पाठकों के लिए मुहैया कराने में दुस्साहस किया। यदि पुस्तक के पत्रों पर अलग से समीक्षात्मक आलेख होते तो तस्वीर ही अलग होती। जैसा कि प्रकाशक से अपेक्षा थी कि वह पुस्तक के लिए प्रयोग स्कैन की हुई सामग्री को और अधिक स्पष्ट, पठनीय व आकर्षक बना पाता। लेकिन तकनीकी सहयोग की भी अपनी सीमाएँ होती हैं।
मौजूदा संदर्भ में यह भी उल्लेख करना ज़रूरी है कि तेज साहब के आत्मवृत्त के दोनों भाग उनके स्वास्थ्य के साथ न देने के दौर में लिखे गए हैं। अगर वक्त उनका साथ देता तो तस्वीर कुछ और ही होती। शायद नियति, भाग्य नहीं, को यह मंज़ूर नहीं था। जीवन और पुस्तक में किए गए नए-नए प्रयोग के लिए टी.पी. सिंह जी को ढेर सारी बधाई। उम्मीद है पाठक जब दोनों पुस्तकों को साथ मिलाकर पढ़ेंगे तो निस्संदेह वे ऐसा कुछ निकाल पाएँगे जो ख़ुद के जीवन के लिए अनमोल व अनुकरणीय होगा। उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना के साथ . . .।
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