करना था कुछ और मगर
काव्य साहित्य | कविता ईश कुमार गंगानिया15 Feb 2023 (अंक: 223, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
अनायास ही कल मैंने
एक बैंड बाजे वाले समूह को
बड़ी शिद्दत से देखा
उनके एक जैसे कपड़े थे
वाद्य यंत्र अनूठे थे मगर
वे अपनी ही परिभाषा में जकड़े थे
उनका एक सरदार था
वह ख़ुद व उसकी वेशभूषा
बाक़ी से अलग थी और
वाद्य यंत्र भी निराला था
मुँह और उँगलियों के इशारों से
उसने फ़ज़ा का रंग बदल डाला था
सरदार जो भी धुन निकलता
बैंड और ढोल-ढपड़े वाले
उसे इतना बुलंद करते
कि इस शोरगुल में
ज़्यादातर काम की आवाज़ें
बीच में ही दम तोड़ जा रही थी
इसके आकर्षण में कभी मैं
सजेधजे बैंड मास्टर की
भाव भंगिमाओं को देखता
तो कभी उसकी अदाकारी
बैंडमैन तो मुझे निरे कामगारी लगे
मगर सरदार सभी पर भारी लगे
मुझे सरदार की
दरियादिली बड़ी अच्छी लगी
उसकी बदौलत न जाने
कितनों के घर चूल्हा जलता है
मुखिया का काम ही ऐसा है
कुनबा उसी के पीछे चलता है
फिर न जाने क्या हुआ कि
अचानक मेरे सामने अपनी
संसद का एक दृश्य मचलने लगा
साहेब के करतब आगे-आगे और
पीछे-पीछे माननीयों की
अनूठी ढपलियों का दौर चलने लगा
मुझे नहीं मालूम ये क्या था
लेकिन इसका संसद और
बैंड बाजे वालों से सम्बन्ध अटपटा था
मैं दोनों को अलग-अलग खाँचे में
फ़िट करने की कोशिश करता रहा
करना था कुछ और मगर
न जाने मैं क्या-क्या करता रहा।
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