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तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न बुद्ध 

 

तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न बुद्ध 
 
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न! बुद्ध।  
थी पिपासा उर तुम्हारे इस जगत कल्याण की।  
चल दिए थे अर्ध-रात्रि खोज में निर्वाण की॥ 
एक कोलाहल मचा था मन समंदर के तले।  
परिजनों को भी लगा पाए नहीं थे तुम गले॥ 
 
जब तुम्हें करना पड़ा था स्वयं से ही युद्ध।  
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न! बुद्ध॥ 
 
पुत्र-पत्नी मोह से वंचित हुए थे तुम स्वयं।  
तज दिये तुमने गृहस्थी और अपने सब प्रियं॥ 
तुम हुए खंडित कहीं से तोड़ने उस तार को।  
क्या सफल थे रोकने में भावना के ज्वार को॥ 
 
क्या तुम्हारा कंठ उस पल था नहीं अवरुद्ध।  
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न! बुद्ध॥ 
 
वेदना की घाटियों में तुम विचरते ही रहे।  
इस जगत के शूल जैसे प्रश्न सब तुमने सहे॥ 
क्षुब्ध होकर निर्जनों में जब अकेले तुम चले।  
पीर के बादल सघन सब अश्रुओं में थे ढले॥ 
 
कटु उपालम्भों को सुन कर तुम नहीं थे क्रुद्ध।  
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न! बुद्ध॥ 
 
जग हितों में यंत्रणा का कटु गरल तुमने पिया।  
ध्यान संयम त्याग तप का आचरण जग को दिया।  
जब मिला निर्वाण तुमको पूजने यह जग लगा।  
सत्य के क्षिति पर परम संज्ञान का सूरज जगा॥ 
युक्त होकर दिव्य आभा से हुए तुम शुद्ध।  
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न! बुद्ध॥
तुम ही बतलाओ सही है क्या यही न बुद्ध 

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