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उदास बरगद

आज फिर उदास था बरगद,
झुकी हुई थी डालियाँ,
कुम्हलाए से पत्ते,
चाहता था कुछ दर्द बाँटना।
देखे थे उसने भी,
न जाने कितने वसंत,
कुछ याद नहीं,
मगर पतझड़ के बाद ही तो,
आया था ख़्वाबों को,
हक़ीक़त के करीब लाने के लिए,
उजड़े चमन को सजाने, नए तरीके से,
हर बार, दबे पाँव, 
सहलाने कितनों के घाव 
पेड़ यह जानता था,
इसलिए 
जब-जब जीर्ण-शीर्ण होकर 
पत्थरों से, पालों से, 
आहत होकर झरते थे उसके प्राण 
उसकी खुशियाँ 
उसकी हँसी 
हो जाता था गुमसुम वह 
कुछ महीनों के लिए 
जानता था फिर से आएँगे बहारों के साथ 
इसलिए तो ठूँठ बन कर भी जीवित रहकर 
जोहता था अनंग का बाट
वह भी तो जी नहीं सकता था बिना उसके 
मचल उठता था वह भी 
झूलने उसकी बाहों में 
वह प्रतीक्षा रत आँखें 
हरी भरी होकर क्षणमात्र में
युग युग के लिए परितृप्त 
निहारकर निहाल हो उठती थी वसंत को।
मगर 
इसबार 
बहुत देर से आया है ऋतुराज 
इसलिए बहुत उदास है वह 
और ख़ामोश भी 
डरता है 
बेचैन मौसम 
कहीं लूट न ले मदनोत्सव।

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