तरक्की
काव्य साहित्य | कविता कामिनी कामायनी15 Oct 2016
उसने हवा महल बनाकर कहा
देखो, हमने कितनी तरक्की कर ली है
धरती भी भला कोई रहने की जगह है
हम तो इसके ऊपर चाँद तारों के कुछ करीब रहेंगे
वो हमारे हेलिकॉप्टर, वो उड़न तश्तरी
इस ग्रह से उस ग्रह
हम तो सूर्य के अंदर भी झाँकेंगे
असीम इस ब्रह्मांड में
घूमेंगे निर्विरोध।
मगर हम उपजाएँगे क्या? और
टिकाएँगे कहाँ पैर?
मेरे सवाल पर आँखें बंद कर
अपने हवा महल पर
मारी थी मुट्ठी उसने
और देर तक
मिट्टी को
पैरों तले रौंदता रहा था, मुझे दक़ियानूसी कह कर।
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