वाराणसी में गिरता पत्थर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ललित सिंह राजपुरोहित1 Mar 2020 (अंक: 151, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मैं कल जब यहाँ था
ठीक उसी समय
बस में सवारी करते हुए
कार चलाते हुए
बाइक से घर लौटते हुए
मैं वाराणसी में भी था
सुबह ऑफ़िस जाते वक़्त बेटी ने कहा था
पापा शाम आज बर्थडे है मेरा
केक लाना मत भूलना
लौटते वक़्त मैंने केक को
कार की पिछली सीट पर सँभाल कर रखा था
कॉलेज के लिए निकलते वक़्त माँ ने याद दिलाया था
बेटा लौटते वक़्त दवाई लाना मत भूलना
वरना पूरी रात बीतेगी खाँसते खरोसते हुए
लौटते वक़्त मैंने दवाइयों को
बाइक के हैंडल पर लटका रखा था
आज सुबह लाठी के सहारे चलकर
पत्नी ने डबडबाई आँखों से कहा था
नाती-पोतों को ले आओ बड़ा मन है उनसे मिलने का
शाम को मैं, बस में अपनी पोती के संग घर लौट रहा था
आहिस्ता आहिस्ता
बाइक, कार, ऑटो और बसों में
गंगा किनारे सड़कों पर रेंग रही थी ज़िंदगियाँ
उस पल ज़िंदगी की रफ़तार धीमी थी
क्योंकि शहर में विकास की कलियाँ खिल रही थीं
अचानक गंगा के शहर में वज्रपात हुआ
विकास का एक पिल्लर
धम्म से ज़मीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा
और नीचे दबकर ख़ाकसार हो गई
बाइक, कार, ऑटो और बसों में रेंग रही ज़िंदगियाँ
लिखने से पहले ही मिटा दी गई कई कहानियाँ
अनसुनी कर दी गई सारी प्रार्थनाएँ
जो गूँज रही थीं ब्रिज के पास बने मंदिरों और मस्जिदों में
सड़क की दूसरी ओर एक पागल चिल्ला रहा था
कंक्रीट के जंगल क़ुर्बानी माँगते हैं....
कंक्रीट के जंगल क़ुर्बानी माँगते हैं....
मगर उसकी अवाज़
क्रंदन, चित्कार और ट्रैफ़िक के शोरगुल में दब गई
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