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विसंगतियों पर तीखे प्रहार का दस्तावेज़

पुस्तक: कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ (व्यंग्य संग्रह) 
लेखक: रामस्वरूप दीक्षित
प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, सी-122, सेक्टर 19, नोएडा-201301    
मूल्य: 250 रुपए

“कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ” सुपरिचित व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित का चर्चित व्यंग्य संग्रह है। यह रामस्वरूप दीक्षित का पहला व्यंग्य संग्रह हैं जो वर्ष 2021 में इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा से प्रकाशित हुआ है। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। ये अपनी व्यंग्य रचनाओं में सहज, सरल भाषा में गहरा कटाक्ष करते हैं। व्यंग्यकार ने इस संग्रह की रचनाओं में वर्तमान समय में व्यवस्था में फैली अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं, खोखलेपन, पाखण्ड इत्यादि अनैतिक आचरणों को उजागर करके इन अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार किए हैं। साहित्य की व्यंग्य विधा में रामस्वरूप दीक्षित की सक्रियता और प्रभाव व्यापक हैं। व्यंग्यकार वर्तमान समय की विसंगतियों पर पैनी नज़र रखते हैं। इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्यकार ने महीन कशीदाकारी की है जिन्हें पढ़कर पाठकों के चेहरों पर मुस्कान बिखर जाती है। 

“कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ”, “ठंड के फायदे”, “बुद्धिजीवी”, “ग्लोबल समय में दाल”, “जनरल डिब्बे की यात्रा”, “आख़िर भेड़ें भी पुरस्कार की हकदार हैं”, “सर्कस, रोटी और बच्चे”, “शेर और बकरी” इत्यादि काफ़ी रोचक व उम्दा व्यंग्य रचनाएँ हैं। ”ठंड के फायदे” रचना में व्यंग्यकार ने राजनीतिक भाषणों पर गहरा कटाक्ष किया है। इस व्यंग्य रचना में लेखक लिखते है—मितरो! आज मैं ठंड के बारे में आपसे बात करूँगा। माँ-बेटे की सरकार में कभी इतनी ठंड पड़ी क्या? भाइयो बहनो! हमारे देश में ठंड की कमी नहीं थी। पहले भी देश में इतनी ही ठंड मौजूद थी, मगर उसे पड़ने नहीं दिया गया। सारी ठंड एक षड्यन्त्र के तहत विदेशों को भेज दी जाती थी। विदेशी लोग हमारे देश की ठंड पाकर मौज उड़ाते थे और हमारे देश की ग़रीब जनता ठंड के लिए तरसती रहती थी। ठंड की इस कालाबाज़ारी पर हमारी सरकार ने रोक लगा दी है। अरहर की दाल की क़ीमत में बढ़ोतरी पर“ग्लोबल समय में दाल” रचना में विनोदपूर्ण और चुटीली भाषा में रोशनी डाली गई है। अन्न को हमारे यहाँ देवता माना गया है। सरकार ने अरहर की दाल में देवत्व स्थापित करने का प्रयास किया है। अब वह ग़रीब लोगों के लिए खाने की जगह देखने-पूजने की वस्तु बन गई है। लोग उसके दानों की माला पहनने लगे हैं। ग्रहों से पीड़ित लोगों को अब ज्योतिषी अरहर की दाल के नग की अँगूठी पहनने की सलाह देने लगे हैं। अब आयकर विभाग के छापों में नगदी व गहनों के साथ अरहर की दाल भी बरामद की जाने लगी है। आय से अधिक अनुपात में दाल रखना अब अपराध माना जाने लगा है। दहेज़ में लोग दाल की माँग करने लगे हैं।           

“जनरल डिब्बे की यात्रा” रचना में रेल के जनरल डिब्बे का व्यंग्यकार ने रोचक चित्रण किया है। रेल के जनरल डिब्बे का हृदय बहुत विशाल होता है। उसमें सब के लिए जगह होती है। अच्छा ख़ासा ठोस आदमी उसमें किसी तरल पदार्थ की तरह समा जाता है। विदिशा स्टेशन से ढेर सारा तरल पदार्थ डिब्बे में समा गया। विदिशा से बढ़ते ही मुझे लगने लगा कि मेरी आत्मा शायद ही भोपाल तक मेरे शरीर का साथ दे। वह अनंत में विलीन होने को छटपटाने लगी थी, तभी सांची स्टेशन पर भगवान बुद्ध में आस्था रखने वालों का एक जत्था उतरा तो डिब्बे में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हुई और मेरी आत्मा की छटपटाहट कुछ कम हुई। साहित्य में दिखने वाली विसंगतियों पर व्यंग्यकार ने व्यंग्यात्मक प्रहार किये हैं। “आख़िर भेड़ें भी पुरस्कार की हकदार हैं” व्यंग्य रचना में लेखक साहित्य में मिलने वाले पुरस्कारों पर गहरी चोट करते हैं।     साहित्य में अब तक दिल्ली से दार्जिलिंग तक सब जगह भेड़ियों की हुकूमत रही है। उन्होंने कभी भेड़ों को घास नहीं डाली, बल्कि उन्हें खा जाने की फ़िराक़ में रहे। मगर ज़रा सोचे, आख़िर भेड़ें भी तो पुरस्कार की हकदार हैं। हम भेड़ों को पुरस्कृत कर साहित्य को भेड़ियों से मुक्त कर रहे हैं। अभी तक रचनाएँ पुरस्कृत होती रही हैं, हम रचना को नहीं रचनाकार को पुरस्कृत करने की परम्परा डाल रहे हैं। हम मनुष्य को कृति से बड़ा मानते हैं। हमारे लिए मनुष्य अहं है, रचना गौण है। हमारे लिए मनुष्य ही सबसे बड़ी रचना है। 

“सर्कस, रोटी और बच्चे” रचना में लेखक लिखते हैं—आजकल रोटी के लिए आदमी को ख़ुद सर्कस करना पड़ता है। जो रोटी के लिए सर्कस नहीं करते, वे कुर्सी के लिए सर्कस कर रहे हैं। पत्नी के सामने तो सब सर्कस करते ही हैं। बच्चे ये सर्कस देखते-देखते एक दिन इसी सर्कस के पात्र बन जाते हैं। “वह बड़े लेखक के रूप में उभर रहा है” तथाकथित लेखकों की करतूतों पर गहरा कटाक्ष है। इस रचना में लेखक लिखते हैं—वह बाज़ार के बाहर बाज़ार का विरोध करता है। बाज़ार में जाकर अपना बाज़ार बनाता है। उसने कइयों को बाज़ार से बाहर कर दिया है और कइयों का बाज़ार बंद कर दिया है। वह साहित्य में बाज़ार के व बाज़ार में साहित्य के प्रवेश के ख़तरों से लोगों को सावधान करते हुए अपना माल बेचता है। उसके ऐसे ही क्रियाकलापों व उदात्त विचारों के चलते आज हिंदी के तमाम प्रकाशक, संपादक, पुरस्कार और संस्थाएँ उसकी जेब में है।       

“ऊपर उठा हुआ लेखक”, “बिना बसंत के जीवन”, “मूँछें: एक विकास यात्रा”, “कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए दाख़िला हाथ”, “होली” जैसे व्यंग्य अपनी विविधता का अहसास कराते हैं और पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं। रामस्वरूप दीक्षित ने व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को बहुत नज़दीक से देखा, अनुभव किया है, उन्हीं विसंगतियों, मानवीय प्रवृतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं को उन्होंने अपनी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से उजागर किया है और साथ ही उन्होंने पाठकों को जगाने का भी प्रयास किया है। लेखक को जो बातें, विचार-व्यवहार असंगत लगते हैं वे उसी समय अपनी लेखनी से त्वरित व्यंग्य आलेखों के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े सभी कर्णधारों को सचेत करते रहते हैं और पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर उन्हें झकझोर कर रख देते हैं। पाठक इन व्यंग्य रचनाओं को पूरा पढ़कर ही रुकता है। रामस्वरूप दीक्षित अपनी व्यंग्य रचनाओं में व्यवस्था की नक़ाब उतार देते हैं। लेखक ने संग्रह की सभी रचनाओं को सामर्थ्य के साथ व्यक्त करने का प्रयास किया है। 118 पृष्ठ का यह व्यंग्य संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। आलोच्य कृति “कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ” में कुल 31 व्यंग्य रचनाएँ हैं। आशा है कि भविष्य में रामस्वरूप दीक्षित के व्यंग्य और अधिक चुटीले व धारदार दिखाई देंगे। 

दीपक गिरकर
समीक्षक
28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, 
इंदौर-452016    
मोबाइल: 9425067036
मेल आईडी : deepakgirkar2016@gmail। com

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टिप्पणियाँ

अख्तर अली 2022/02/18 06:22 AM

कड़ाही में जाने को लेकर आतुर जलेबी....... राम स्वरूप दीक्षित जी की व्यंग्य लेखन में मज़बूत पकड़ का सबूत है। प्रत्येक व्यंग्य में आलोचना और सुधार का अलग अलग अंदाज़ मौजूद है। समीक्षक ने उसे और अच्छे से विस्तार दिया है।

धर्मपाल महेंद्र जैन 2022/02/18 04:01 AM

"कड़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ" व्यंग्य संकलन पर सटीक समीक्षा। रचनाकार और समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई।

आनंदकृष्ण 2022/02/18 02:46 AM

श्री रामस्वरूप दीक्षित के इस बेहद रोचक व्यंग्य संग्रह की सम्यक समीक्षा भाई दीपक गिरकर ने की है । उन्हें साधुवाद । श्री रामस्वरूप दीक्षित लंबे समय से सृजन में सक्रिय हैं । उनकी इस पहली प्रकाशित कृति में उनकी गहरी अंतर्दृष्टि और अनुभवसंपन्नता झलकती है । कृति के प्रारम्भिक पृष्ठों में ही विसंगतियों के प्रति उनकी यह वितृष्णा भी पाठक को अपने साथ बांध लेती है जब वे उम्मीद करते हैं कि विसंगतियाँ समाप्त हों और उन्हें दूसरा व्यंग्य संग्रह न लिखना पड़े । दीक्षित जी को बधाई, दीपक जी को पुनः साधुवाद, इंडिया नेटबुक्स के डॉ संजीव कुमार को इस बेहतरीन संग्रह को प्रकाशित करने लिए धन्यवाद और साहित्यकुंज को इस समीक्षा के माध्यम से कृति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए आभार । आनंदकृष्ण, भोपाल

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