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वो चाहती थी

चाहत थी उसकी, कुछ लिखने की,
चाहत थी उसकी, कुछ पढ़ने की,
वो कुछ कर गुज़रना चाहती थी,
अपने साथ-साथ, अपने समाज को भी,
वो आगे ले जाना चाहती थी।
 
पर ये क्या हुआ . . . 
ये कैसे हुआ . . . 
 
एक दिन कुछ दरिंदों ने,
कुछ हैवान परिंदों ने,
उस फूल जैसी बच्ची को 
अपनी हवस का शिकार बना लिया,
उसकी आबरू लूट ली, 
उसको बेबस लाचार 
उसको अपाहिज बना दिया,
उसके दोनों पैरों को उससे छीन लिया,
हर रोज़ तड़प-तड़प कर मरने के लिए 
उसको ज़िंदा ही छोड़ दिया।
उसको, ज़िंदा ही छोड़ दिया . . . 
 
लेकिन एक मिनट . . . 
उसके साथ ऐसा क्यों किया गया,
आख़िर उसने ऐसा भी क्या गुनाह किया . . . 

वो तो बस एक छोटे से क़स्बे की, 
एक छोटी जाति की लड़की थी,
वो तो बस एल.एल.बी. पढ़ के 
बैरिस्टर बनना चाहती थी,
वो चाहती थी, अपने समाज से 
ऊँच-नीच की बुराई ख़त्म करे,
वो चाहती थी, उसके समाज की 
लड़की भी पढ़-लिख कर आगे बढ़े।
 
क्या यही वज़ह थी . . . 
क्या यही था उसका गुनाह . . . 
 
क्या गुनाह है एक लड़की का पढ़ना,
क्या गुनाह है लड़कियों का तरक़्क़ी करना . . . 
क्या एक छोटी जाति का आगे बढ़ना गुनाह है,
या समाज की कुरीतियों को 
मिटाने के बारे में सोचना गुनाह है,
या कहीं लड़की मात्र होना ही तो गुनाह नहीं,
या कहीं, लड़की मात्र होना ही तो गुनाह नहीं . . . 
 
नहीं, ये गुनाह नहीं हो सकते,
वो दरिंदे इंसान नहीं हो सकते,
उसको इंसाफ़ मिलना ही चाहिए,
उसको इंसाफ़ न दिला सके, 
ऐसे न्यायालय न्याय के घर नहीं हो सकते।
ऐसे न्यायालय न्याय के घर नहीं हो सकते . . . 
 
आख़िरकार उसकी रूह को कुछ राहत मिलती है,
उन दरिंदो को मृत्यु-दंड की सज़ा मिलती है।
 
लेकिन उसके सपनों का क्या हुआ,
जिन सपनों के धागों को 
उसने हर पल था बुना . . . 
क्या उसके सपनों को न्याय मिला,
इस हादसे के बाद किस तरह से 
उसने अपना जीवन था जिया . . . 
 
क्या वो टूट गई,
क्या वो बिखर गई,
किस तरह से उसने अपने आप को सँभाला,
कहीं उसने, आत्महत्या तो न कर ली . . . 
 
नहीं,
 
वो इतनी भी कमज़ोर न थी,
अब दिव्यांग थी, वो विकलांग न थी।
उसके सपने ख़त्म न हुए थे,
बल्कि महिला-सशक्तिकरण, 
सामाजिक तौर पर पिछड़ों का सशक्तिकरण, 
के साथ-साथ 
दिव्यांग-सशक्तिकरण के मुद्दे भी 
उसके लक्ष्य की पंक्ति में जुड़ गए थे।
 
आज वो, 
एक दिव्यांग-महिला-सशक्तिकरण हेतु 
एन.जी.ओ. चलाती है,
समाज के हर तबक़े के लोगों की 
सहायता के लिए मुहिम चलाती है,
अपने सपनों को उसने न जाने 
कितनी बच्चियों के माध्यम से है जिया,
ख़ुद कुछ क्षण के लिए टूट जाने के बावजूद,
न जाने कितनी बच्चियों को उसने टूटने ना दिया।
न जाने, कितनी बच्चियों को उसने टूटने ना दिया . . . 
 
वो कुछ कर गुज़रना चाहती थी,
अपने साथ-साथ वो अपने
समाज को भी आगे ले जाना चाहती थी,
वो चाहती थी . . . 
 
अपने माँ-बाप का आज अभिमान है वो,
अपने समाज की एक आदर्श शान है वो,
वो चाहती थी जो वो उसने कर दिखाया,
अपने जीवन को उसने मुकम्मल कर बनाया।
अपने जीवन को उसने मुकम्मल कर बनाया . . . 

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