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यमराज या रक्षक? 

 

वर्ष 1993 की बात है, मैं खरगोन में एक प्रसिद्ध पत्रकार सुभाष यादव के न्यूज़ नेटवर्क “विज़न प्लस” में ‘ब्यूरो इन चीफ़ एडिटर’ के पद पर कार्यरत रही। 

मेरे हसबैंड अरुण यादव के पिताजी की शुगर फ़ैक्ट्री (बोरावा गाँव स्थित) में कार्य करते थे। अपने व्यवसाय के चलते कंपनी द्वारा ही बोरावा में अच्छा-ख़ासा मकान मिल गया था। इसलिए डेली अप-डाउन करती थी। 

गाँव में अच्छा मकान सुख का स्त्रोत बन चुका था, यहाँ के प्राकृतिक वनस्पति और पेड़ों की शुद्ध हवा मन को शांत रखती थी। बच्चे भी देवास के स्कूल जाते थे। इसी समयकाल के बीच, एक बेहद रोचक और दिलचस्प घटना की स्मृतियाँ आज भी मन और रूह को कँपा देती हैं। 

अगस्त का महीना था, उस दिन सुबह से भयंकर बारिश हो रही थी, उसी दिन दुर्भाग्यवर्ष क्राइम रिर्पोटर देरी से दफ़्तर आए तो न्यूज़ एडिट करने में काफ़ी देर लगी, काम छोड़ा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि समाचार सही वक़्त पर जनता को पहुँचाना था। लगभग रात के 8:30 बज चुके थे, बाहर देखा तो काफ़ी अँधेरा छा गया था। 

प्रेस की गाड़ी तो निकल गई थी। आख़िरी विकल्प बस से सफ़र करना समझा, खरगोन से अंतिम बस उस समय 9 बजे मिलती थी। अतः जल्द से जल्द काम ख़त्म कर बस स्टेशन पहुँच, बस में जा बैठी और निश्चिंतता की साँस लेकर बस की खिड़की से झाँका तो बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, रास्ता ख़राब था, और डरावने अँधेरे ने तो भूतिया फ़िल्म का मंज़र बना रखा था। किन्तु बस के अंदर होने से तसल्ली थी। बारिश के कारण बस रात के 11:00 के आस-पास बोरावा गाँव पहुँची, जब बस से उतर कर देखा तो चारों तरफ़ घुप्प अँधेरा, न कोई रोशनी! सिर्फ़ चारों ओर अँधेरा और अँधेरा . . .। बारिश जमकर हो रही थी, सुबह के मौसम को देख अपने बैग में रेनकोट रख लिया था। 

बैग में से रेन कोट निकाल कर पहनने लगी, अपने हसबैंड को तलाशा तो सूनेपन का अहसास हुआ। वह कहीं नज़र नहीं आए। यहाँ से 20-25 किलोमीटर की दूरी पर शुगर फ़ैक्ट्री थी, वहीं के स्‍टाफ़ क्वाटर्स में हम रहते थे। नित्य वे रात में मुझे लेने फ़ैक्ट्री से यहाँ ऑफ़िस आ जाया करते थे। उस समय बोरावा गाँव के बारे में कहा जाता था कि बड़ा ख़राब गाँव है। अधिकतर लूटपाट की घटना यहाँ होती रहती थीं, इसलिए शाम के 6 बजे ही सब दुकानें आदि बंद हो जाती थीं। शाम को कोई घर से बाहर नहीं निकलता था। शायद बस मैं और मेरे हसबैंड ही अकेले घर से बाहर रहते थे। 

ऐसी हालत में बस स्टॉप पर अकेले खड़े होने पर बड़ी घबराहट हो रही थी। उस वक़्त मोबाइल इतना अधिक प्रचलित नहीं था। तब तो पेजर होते थे पर नेट कवरेज न होने से सब बेकार। पैदल जाने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि 25 किलोमीटर की दूरी वह भी कँटीली झाड़ियाँ, अँधेरा, सूनापन और उबड़ खाबड़ रास्ता . . . कुछ क्षण माहौल को समझने का प्रयास किया। 

कुछ दूरी पर एक झोंपड़ी में एक दीया जलता दिखाई दिया, विचार आया यदि कोई यहाँ आता है तो उस झोंपड़ी में जाया जा सकता है फिर मन घबरा गया, उस झोंपड़ी में पता नहीं कौन होगा . . .? 

एक ही चारा था, भगवान का नाम लेकर चुपचाप खड़े रहकर हसबैंड का इंतज़ार करूँ, पास की एक झाड़ी में दुबक कर छुपने का प्रयास करने का सोचा, पर कीड़ों के डर से मन परेशान हो गया। 

कुछ देर बाद घोड़ों की आवाज़ आई, दूर से देखा तो दो घुड़सवार, हाथ में लालटेन लेकर हथियार से सजे आ रहे थे! उन्हें देख होश उड़ गए, मानो यमराज से आज मुख़ातिब होना पड़ेगा . . .!! 

मैं पूरा प्रयास कर रही थी की इनकी भनक न लगे पर, जैसे ही मेरे पास से गुज़रे पता नहीं कैसे उनकी मुझ पर नज़र पड़ गई, एक घुड़सवार पास आकर घोड़े पर बैठे ही बैठे बोला, “कौन हो तुम, यहाँ छुपकर क्या कर रही हो . . .?” तब तक दूसरा घुड़सवार भी आ गया, उनको सुभाष यादव जी के न्यूज़ नेटवर्क के बारे में बताया तो बोले, “कोई बात नहीं बहुत तेज़ बारिश हो रही है, आप हमारे घोड़े पर बैठ जाए, आपको हम सुरक्षित घर छोड़ आएँगे।” 

और उन्होंने घोड़े को नीचे सड़क पर बैठा दिया, यह सब देख मना किया। 

मैं बोली, “मुझे आपके साथ नहीं जाना . . . मेरे हसबैंड रास्ते में होंगे, मुझे पूरा विश्वास है।” 

वे बोले, “आपको मालूम है यह इलाक़ा अच्छा नहीं है, आज-कल माहौल ख़राब है। हम आपको अकेला यहाँ नहीं छोड़ सकते हैं।” 

जब उनके साथ जाने के लिए साफ़ इंकार किया तो दोनों घुड़सवार ने आपस में बात करने लगे। थोड़ी देर हो गई . . . कुछ पलों बाद एक घुड़सवार तेज़ी से घोड़े को दौड़ाता अँधेरे में गुम हो गया! अब वह दूसरा यमदूत बन मेरे सामने था। तब ज़िन्दगी में पहली बार ईश्वर से किसी को भागने की प्रार्थना की थी। अजीब सी हालत हो गई थी। 

लगभग 1 घंटे के बाद एक चमकती हुई काली जीप कीचड़ उड़ाती वहाँ आकर मेरे सामने खड़ी हो गई, वह जीप पहचानी लग रही थी। देखा तो उसमें से 3-4 पुरुष बहार निकले; उनमें अपने हसबैंड को देख बड़ा सुकून हुआ! सारी घबराहट क्षण भर में ख़त्म तो हुई पर, झुँझलाहट से कहा, “आप आज क्यूँ नहीं आए?” 

उन्होंने बताया की रास्ते में हमारी गाड़ी ख़राब हो गई थी। 

इसलिए अपने दोस्त के साथ आना पड़ा। 

फिर वह गाड़ी में बैठने के लिए कहने लगे, तो मैं तुरंत गाड़ी में धम्म से बैठ गई। देखा मेरे हसबैंड की कंपनी के उनके दोस्त थे, रास्ते में उन्होंने बताया कि वह मेरे हसबैंड के मित्र की गाड़ी थी। हसबैंड की गाड़ी ख़राब होने पर न तो वह कंपनी जा पा रहे थे, न बोरवा। भला हो उस घुड़सवार पहरेदार का जिसने भरी बरसात में सुभाष यादव जी के घर जाकर उनको बताया कि, कोई महिला अकेली अपने पति के इंतज़ार में बस स्टॉप पर खड़ी हैं। तब उन्होंने मेरे हसबैंड के यहाँ यह सूचना भेजी और वह लोग आ पाए। तभी इनके मित्र बोले, “हम समझ गए कि श्रीवास्तव जी की मिसेज होगी, जब क्वॉर्टर पर ताला देखा तो समझ आ गाया।” 

यह सब जानकर बड़ा अखरा कि, जिनको मैं यमराज के रूप में लुटेरे, डाकू या दुश्मन समझ बैठी थी; वे दरअसल रक्षक निकले। कई बार वहाँ से गुज़रने पर सोचा काश किसी तरह से वे दोनों रक्षक मिल जाएँ तो आभार व्यक्त कर दूँ पर, मिलना ही नहीं हुआ। 

आज भी उस घटना के बारे में सोचकर मन काँप जाता है, बोरावा में कुत्ते भी जंगली शेर से कम नहीं हैं, वो तो बस ईश्वर की कृपा है। 

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