ऐ रात सँभल कर चल ज़रा
काव्य साहित्य | कविता मानोशी चैटर्जी23 May 2017
ऐ रात सँभल कर चल ज़रा
लगी है आँख इक पल ज़रा
बरसों की तू भी जागी है
अब चैन से तो ढल ज़रा
ऐ रात सँभल कर चल ज़रा
ऐ ख़्वाब तू भी सो ही जा
आँखों में न कोहराम मचा
पलकों पे बैठा पैर झुलाये
गिर न जा, सँभल ज़रा
ऐ रात सँभल कर चल ज़रा
परछाईं चुपके छुप के चल
दीवारें देख सोती हैं
श्श्श्श आज इनको सोने दे
हर रात मुझ संग रोती हैं
तन्हा ही आज बहल ज़रा
ऐ चाँद हँसना छोड़ कर
बादल पे रख सर सो ही जा
छुप छुप के तू भी मेरे संग
है इंतज़ार में जगा
इतरा के कम मचल ज़रा
तन्हाई मुझको छोड़ के
तन्हा न जा, संग हो ले
बाँहों में मेरे नींद है
तो क्या, दामन में तू सो ले
मिलना फिर मुझसे कल ज़रा
ऐ रात सँभल कर चल ज़रा
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