अंजाम है बाक़ी
काव्य साहित्य | कविता ज्योति मिश्रा15 Oct 2019
अभी आगाज़ हुआ था, अभी अंजाम है बाक़ी,
किया था ख़त्म उसने सब, मगर इक शाम है बाक़ी,
वही लहरें, वही ढलता हुआ सूरज, वही सागर,
किनारों से ज़रा कह दो अभी इक जाम है बाक़ी॥
मुक़द्दर रूठ ले कितना, मगर कुछ कर नहीं सकता,
उसे जा कर ख़बर दे दो, कि मुझमें जान है बाक़ी,
वह कितना भी बदल जाए, मुझे अब फ़र्क न पड़ता,
कि जिसने रखा मुझे ज़िंदा, वो स्वाभिमान है बाक़ी॥
उठो जागो, चलो तबतक, कि जबतक मंज़िल न पा लो,
तुम्हारे हिस्से में अब भी, बहुत से काम हैं बाक़ी,
अगर लौटा सको तो, हर इक नज़राना लौटा देना,
तुम्हारे पास मेरे अब भी, बहुत सामान हैं बाक़ी॥
ये कोई और सौदागर है, जो नफ़रत फैलाता है,
या रावण की तरह अब भी, कोई शैतान है बाक़ी,
हमें सौगंध इस मिट्टी की, सर झुकने नहीं देंगे,
कि इसके चरणों में अबतक, मेरा बलिदान है बाक़ी॥
अभी आगाज़ हुआ था, अभी अंजाम है बाक़ी....
किया था खत्म उसने सब, मगर इक शाम है बाक़ी...
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