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ख़ुदा कैसी ये दी क़िस्मत हाय!

अपनी मसरूफ़ियत से थक कर मैं,
उसके कंधों पर सिर को रख कर मैं, 
ख़ुद को निढाल कर दिया जैसे, 
बेंच को माँ समझ रही थी मैं॥


वो गोद और वो बाँहें क्या कहने, 
बादलों की निगाहें क्या कहने, 
किसी साज़िश के तहत बरसी थीं, 
हाय! रिमझिम घटाएँ क्या कहने॥


पास आती हुई सीटी की धुन, 
मेरी नींदों की जैसे हैं दुश्मन, 
पलक उठा के ली जो अंगड़ाई, 
गई थी उस पल जैसे साँसें थम॥


सामने छोटे से उस ढाबे पे, 
जूठे प्याले थे चाय के रखे, 
आसमां से वो गिर रही बूँदें, 
बढ़ा रही थी चाय को जैसे॥


वहीं मासूम इक खड़ा था जो, 
हालातों से बहुत लड़ा था वो, 
उसकी नज़रें वहीं पर रुकती थी,
जैसे अमृत का इक घड़ा था वो॥


ख़ुद को वो रोक नहीं पाया था,
अंततः जा उसे उठाया था, 
सबकी नज़रों से बचा कर उसने, 
चाय को जिह्वा तक लगाया था॥


इस सितम पर भी क्या सितम थे हुए, 
मरहमों की जगह ज़ख़्म थे हुए,
एक चाँटे से जैसे होश आया,
उसपर मालिक के वो करम थे हुए॥


आँख से अश्क भी न बह पाए, 
दिलों को चीर के निकली हाय!
कप के टुकड़ों को देखकर बोला, 
ख़ुदा कैसी ये दी क़िस्मत हाय!


ख़ुदा कैसी ये दी क़िस्मत हाय!

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