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ढूँढता हूँ ज़िन्दगी में आशियाना

ढूँढता हूँ ज़िन्दगी में आशियाना,
ग़म का मारा ज़िन्दगी में चाहता हूँ मुस्कराना,
चाहता हूँ एक पल को पुष्प का स्पर्श कर लूँ,
कंटकों की चुभन को मैं चाहता हूँ भूल जाना।

 

चाहता उड़ कर चलूँ उस आसमाँ में,
प्यार का हो आशियाना जिस जहाँ में,
फैल जायेगी खुशी सारी फिजां में,
गर मुझे कोई सिखा दे मुस्कराना।

 

पंथ से अनभिज्ञ होकर घूमता हूँ,
ज़िन्दगी के मोड़ को भी देखता हूँ,
हर नज़र मुस्कान अपनी खोजता हूँ,
काश, मुझको भी सिखा दे आज कोई मुस्कराना।

 

पर कहीं ऐसा न हो कि बीत जाये सब जमाना,
सूख जाये पुष्प और लूट जाये सब खजाना,
फिर हमारे आँसुओं पर तुम कभी मत मुस्कराना,
ज़िन्दगी का आशियाना मत मिटाना।
मैं, ढूँढता हूँ ज़िन्दगी में आशियाना।

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