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हे देवाधिदेव!

सर्वत्र प्रेम के प्रेरक, समस्त जीवों के मन-मंथक, सब प्राणियों के जन्म के मूलाधार, एवं सम्पूर्ण विश्व के इतिहास के मूलकारक देवाधिदेव कामदेव! तुम ब्रह्मांड के समस्त चर-अचर में सर्वश्रेठ हो। मैं तुम्हें साष्टांग प्रणाम करता हूँ।

तुम ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि समस्त देवों से श्रेष्ठतर हो। ब्रह्मा प्राणियों के जन्मदाता हैं, परंतु यदि तुम अपनी पर आ जाओ और अपने कामवाण न चलाकर उन्हें तरकश में बंद रहने दो, तो ब्रह्मा जी का प्राणियों को जन्म देने का सारा तकनीकी ज्ञान धरा रह जायेगा और कोई जन्म ही नहीं होगा। विष्णु संसार के पालक हैं, और शंकर संहारक। तुम चाहो तो उसी अमोघ अस्त्र से इन दोनों को भी बेरोजगार कर सकते हो- जब प्राणी जन्म ही नहीं लेंगे तो पालन किसका और संहार किसका? परंतु अनंत प्रीति का सागर होने के कारण तुम्हें इन देवताओं की रोजी रोटी का बड़ा खयाल है और तुम अपने कामवाणों को तरकश में बंद करने के बजाय उन्हें घिस घिस कर सान देते रहते हो, जिससे किशोरावस्था आते आते ही लड़के-लड़कियाँ प्रणय क्रीड़ा में लिप्त होने को आकुल रहने लगते हैं।

तुम ईश्वर के अवतारों से भी श्रेष्ठतर हो। श्रीराम सोलह कलाओं के अवतार थे एवं श्रीकृष्ण चौंसठ कलाओं के अवतार थे, परंतु तुम अनंत कलाओं के अवतार हो। श्रीराम ने एक सीता जी से विवाह किया था और उनके प्रेम में पड़कर सोने की लंका का सर्वनाश कर दिया था। श्रीराम की अपेक्षा श्रीकृष्ण में अड़तालीस अतिरिक्त कलायें थीं जिसके फलस्वरूप उन्होनें सोलह हजार आठ गोपियों को अपनी प्रेमिका बनाया था परंतु द्रौपदी के अपमान का बदला लेने हेतु उन्होनें द्वापर युग की इतिश्री कर दी थी। अनंत कलाओं से युक्त होने के कारण तुम्हारी प्रेमिकाएँ अनंत हैं और तुम्हें हर जीव-जंतु का नारी-स्वरूप अपने शर-संथान का पात्र प्रतीत होता है। अत: तुम्हारा हृदय इतना विशाल है कि तुम किसी साम्राज्य अथवा किसी युग के विनाश के चक्कर में नहीं पड़ते हो, वरन` नित नई रतियों पर पुष्पवाण चलाने के सद्‌प्रयास में लगे रहते हो।

तुम्हारा वाण अचर जगत पर उतना ही प्रभावी है जितना चर जगत पर। ब्रह्मांड में व्याप्त ऊर्जा एवं आकाशीय पिंडों का अस्तित्व भी तुम्हारे द्वारा स्थापित विपरीतलिंगी आकर्षण के कारण ही है। इसीलिये जब भी घनात्मक आवेश से ऋणात्मक आवेश टकराता है, दोनों का फ्यूजन (एकीकरण) होकर एक नवीन अणु की उत्पत्ति होती है और ऊर्जा का उत्सरण भी होता है। ब्रह्मांड में व्याप्त अनंत घनात्मक एवं ऋणात्मक आवेश इस प्रकार के फ्यूजन को आतुर रहते हैं, और नित नये आकाशीय पिंडों को जन्म देते हैं।

मानव अपने अहंकारवश अपने को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है- और इस अहं का एक कारण उसकी यह समझ भी है कि तुम उस पर हर मौसम में कृपालु रहते हो, जब कि अन्य जीवों पर मौसम-विशेष में ही शरसंधान करते हो। इसी से वह गदहे को वैशाख-नंदन कहता है और उसकी समझ में कुत्ते केवल क्वार में बौराते हैं; परंतु आधुनिक जीव वैज्ञानिकों ने अनेक जीवों के रति-व्यवहार का अध्ययन कर सिद्ध कर दिया है कि कई जीवों का प्रणय-व्यवहार ऐसा है कि बड़े बड़े कासानोवाओं को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये। अब दुर्दांत शेर को ही ले लें- वह अपने स्वयं के बच्चों को छोड़कर अन्य शावकों को इसलिये मार देता हैं जिससे कि उनकी शेरनी माँ की शक्ति का ’अपव्यय’ बच्चों के लालन पालन में न हो और वह उस शेर के साथ रति-क्रिया को शीघ्र आतुर हो जाये; और देखा गया है कि ऐसी शेरनी कुछ ही दिन में इतनी कामातुर हो जाती है कि सप्ताह भर तक बिना खाये पिये कई सौ बार क्रीड़ारत होती रहती है चाहे इसके लिये उसे एक से अधिक शेरों से संसर्ग क्यों न करना पड़े। चींटियों और मधुमक्खियों में रानी के तो बस दो ही काम होते हैं- रति-क्रिया और प्रजनन। अपने इस सुख को बंटने न देने के लिये वह अन्य चींटियों, मधुमक्खियों को एक तरह की अफीम (रसायन) अपने बदन से निकालकर चटाती रहती है जिससे वे कामदेव के बाणों से निष्प्रभावित रहें और उसकी गुलामी करतीं रहें। यदि कोई अन्य चींटी - मक्खी अपनी कामेच्छा जगाने का प्रयत्न करती है तो रानी अपने गुलामों से उसकी पिटाई कराती है और बलपूर्वक उसके बदन में अपना रसायन मलवाती है। कामदेव का कृपापात्र होने के विषय में रहीसस मंकी (अफ्रीका के बंदरों की एक प्रजाति) के सामने मानव तो ऐसा है जैसे राजा भोज के सामने गंगुआ तेली। यह बंदर हर मौसम में सम्भोग करता है; सुबह, दोपहर और सायं हर समय सम्भोगरत होता है, और कभी भी किसी भी साथी के साथ सम्भोगरत हो जाता है। यद्यपि ये सामाजिक प्राणी हैं परंतु इनमें कोई इस बात का बुरा नहीं मानता है कि कौन कब किसके साथ आनंदित हो रहा है- इसके लिये न तो रिश्ते-नातों का बंधन है और न मेरी तेरी प्रेमिका का विवाद। इन्हें समलैंगिक क्रियाओं में भी उतनी ही महारत हासिल है जितनी विपरीतलिंगी क्रीड़ा में। इनकी काम-क्रीड़ा का प्रयोजन केवल प्रजनन अथवा शरीर-सुख ही नहीं होता है वरन्‌ परस्पर सद्‌भाव बनाये रखना भी होता है। इनकी धारणा के अनुसार अगर दो बंदरों में झगड़ा हो गया है तो मुँह फुलाकर बैठने का क्या फायदा? इससे अच्छा तो है कि दूसरे को अपने लिंग का प्रदर्शन कर अथवा उस पर उसका उपयोग कर सुलह कर ली जाये।

हे कामदेव महाराज! यदि आपने ऐसी कृपा तुच्छ मानवों पर की होती तो क्यों लंका जलती, क्यों महाभारत होता और क्यों विश्वयुद्ध होते? मानवों में चहुंओर बस तुम्हारा ही डंका बजता और प्रणय ही प्रणय प्रदर्शित होता।

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