अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

जवानी न सही अभी जवाँ साँस तो है

 

हालाँकि उसके याद न करने का ग़म तो है, 
पर बेवक़्त हिचकियों से मिली नजात तो है। 
वह आये या न आये, पर दे देता है तसल्ली
जब कह देता मसरूफ़ियत की बात तो है॥
 
चाहे दरिया में उफ़नता सैलाब अब न सही, 
बहने के लिये बचा हुआ अभी आब तो है। 
डूबने के डर से चाहे कश्ती किनारे रखे वह
पर मझधार में लाने का करता प्रयास तो है॥
 
जिगर के सुकून के लिये यह क्या कम है? 
तूफ़ाँ न सही, पुरवाई कहीं आसपास तो है। 
इन्कारे-मोहब्बत जब तलक न कर दे वह, 
वस्ल न सही, वस्ल की अभी आस तो है॥
 
वाइज़! तू मुझसे तौबा करने को न कह
ईमाँ के डर से न पियूँ, अभी प्यास तो है। 
मैं शोले क्यों बुझने दूँ, इस जिगर के? 
जवानी न सही, अभी जवां साँस तो है॥
 
मसरूफ़ियत= व्यस्तता; वस्ल= मिलन; वाइज़= धर्मोपदेशक, प्रचारक, धार्मिक या नैतिक उपदेश देने वाला व्यक्ति, प्रवचन देने वाला

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

डो श्याम गुप्त 2023/10/19 10:59 PM

मन चाहे मधु रंग रस घोले, तन तो सब सच बोले | बोले, दर्पण झूठ न बोले | दर्पण सब सच खोले ||

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

बाल साहित्य कहानी

व्यक्ति चित्र

पुस्तक समीक्षा

आप-बीती

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं