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सो तुम लाख कहौ, हम एक नाईं मानययैं

मेरे बचपन में जनपद इटावा के ग्राम कुदरकोट में आयोजित रामलीला देखने मैं जाया करता था। उसका मुख्य आकर्षण लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद हुआ करता था। आजकल दिल्ली में चल रहा किसान आंदोलन मुझे उस लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद की याद दिलाता है। शासन और किसानों के बीच होने वाली बैठक-दर-बैठक और किसानों द्वारा शासन के हर प्रस्ताव को नकार देने का कार्यक्रम ठीक उसी तरह चल रहा है, जैसा कुदरकोट की रामलीला में एक वर्ष एक मूढ़ व्यक्ति को लक्ष्मण बना देने पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच चला था।

रामलीला में ‘लक्ष्मण’ और ‘परशुराम’ के बीच सम्वाद कम होता था, वरन एक दूसरे पर गरज कर और मंच पर उछल-कूद कर अपने को अधिक उच्छृंखल दिखाने की प्रतिस्पर्धा अधिक हुआ करती थी। उसी आधार पर उनमें से एक को विजयी घोषित किया जाता था। इसके लिये किसी नामी ‘लक्ष्मण’ और ‘तख़्ततोड़ परशुराम’ को आमंत्रित किया जाता था। ऐसे नामी ‘लक्ष्मण’ तो इलाक़े में दो-तीन थे, परंतु ‘तख़्ततोड़ परशुराम’ एक ही थे, जो एक बार अपने भारी-भरकम शरीर के साथ मंच पर इतनी ज़ोर से उछले थे, कि वह टूट गया था। तख़्त टूटने पर जनता हर्षोल्लास में डूब गई थी और वह विजयी घोषित हो गये थे। तब से उनका नाम तख़्ततोड़ परशुराम पड़ गया था। 

एक वर्ष कुदरकोट की रामलीला के लिये ‘तख़्ततोड़’ परशुराम तो मिल गये, परंतु कोई मँजे हुए लक्ष्मण न मिल सके, क्योंकि वे पहले ही दूसरे गाँवों की रामलीला में बुक हो चुके थे। अतः कुछ तो मजबूरी में और कुछ हँसी-मज़ाक के उद्देश्य से आयोजकों ने मेरे गाँव के एक बिना पढ़े-लिखे और नाट्य-कला से अनभिज्ञ मूढ़ व्यक्ति को लक्ष्मण बना दिया था। मंच पर उस ‘लक्ष्मण’ को देखते ही परशुराम मान बैठे थे कि आज उनकी विजय सुनिश्चित है। वह मन ही मन मुस्कराये और फिर दहाड़े थे – 

“ऐ, उद्दण्ड बालक! यह देवपूजित धनुष किसने तोड़ा?”

बिना विचलित हुए लक्ष्मण ने उत्तर दिया, “जिनने टोरो हुययै, तिनने टोरो हुययै। तुमै का परेसानी है?”

लक्ष्मण का यह आश्चर्यजनक उत्तर सुनकर दर्शकगण ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे थे। उनकी हँसी थमने पर ‘परशुराम’ बोले, “तू महर्षि दधीचि को नहीं जानता? यह उनकी हड्डियों से बना पवित्र धनुष था।“

अपने सम्वाद पर दर्शकों की प्रतिक्रिया से लक्ष्मण का आत्मविश्वास और बढ़ चुका था। वह बोले, “झूठी न कहौ। हड्डियन सै धनुष कैसें बन सकत है? सौ झुट्ठा मरे हुइययैं, तब तुम पैदा भये हुइ हौ।“

परशुराम तख़्त पर उछलकर फिर दहाड़े, “हे अज्ञानी! देव और मानव गवाह हैं कि यह महर्षि दधीचि की हड्डियों से ही बना धनुष था।“

“का आज झूठी कहबे कौं हमईं मिले हैं? हम तुम्हाई लफ्फाजी एक नांईं मानत हैं!“ लक्ष्मण का निर्द्वंद्व उत्तर था। 

“दुर्बुद्धि! क्यों अपने अहित पर तुला हुआ है?” परशुराम ने लक्ष्मण का हितैषी बन कहा। 

“तुम्हाई जहो बात हमने नेक नाईं मानी। हमाओ हित तुम का जानौ?“ लक्ष्मण ने नकारते हुए कहा। 

“अच्छा तो हम इस धनुष के लाभ एक-एक गिनकर बता रहे हैं . . . ” 

लक्ष्मण परशुराम की बात बीच में काट कर बोल पड़े, “सो तुम लाख कहौ, हम एक नाईं मानययैं।“ 

अब परशुराम हतप्रभ होकर चुप हो गये। दर्शक हँसी से लोटपोट हो रहे थे। उन्होंने मंच पर हुल्लड़ मचाकर लक्ष्मण को विजयी घोषित कर दिया।

बताने की आवश्यकता नहीं है कि यहाँ परशुराम शासन है, लक्ष्मण तथाकथित किसान हैं, और दर्शक विपक्ष है। 
 

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