अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इज़्ज़त का फ़ालूदा

“रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
पानी बिना न ऊबरे,  मोती,  मानुस,  चून।”

यहाँ मानुस के संदर्भ में ‘पानी’ शब्द से रहीम का आशय इज़्ज़त से है। पर हम ‘पानी’ रखें कैसे? कभी-कभी हम बिना कारण के अपनी इज़्ज़त का फ़ालूदा बन जाना मानकर दुखी हो जाते हैं और कभी बिना कारण दूसरों की इज़्ज़त का फ़ालूदा बना देते हैं। हमने स्वयं अपनी इज़्ज़त को इतना छोटा मान रखा है कि हमें इज़्ज़त चली जाने का ख़तरा सदैव लगा रहता है। दूसरे हमने अपने मन में इज़्ज़त चली जाने के इतने कारण मान रखे हैं कि ज़रा सी ऊँच-नीच होते ही इज़्ज़त खिसकती लगने लगती है।

जहाँ तक इज़्ज़त के आने की बात है, तो यह कुछ विरासत में  मिलती है और कुछ कमाई जाती है। विरासती इज़्ज़त पूर्वजों के द्वारा आप के लिये छोड़ी ज़मीन-जायदाद एवं यश के अनुपात में मिलती है। कमाई हुई इज़्ज़त आप द्वारा अर्जित पैसा, पद और प्रतिष्ठा पर निर्भर करती है। यह ज़रूरी नहीं होता है कि ये सत्यनिष्ठा से कमाये जायें। इनको कमाने में बेईमानी और फ़रेब का इस्तेमाल तब तक स्वीकार्य माना जाता है,  जब तक ऐसा करते हुए आप पकड़े न जायें।    

हमने इज़्ज़त गँवाने के अनेक और अनोखे रास्ते बना रखे हैं। यह आवश्यक नहीं है कि इज़्ज़त गँवाने वाले का उसमें कोई योगदान, संलिप्तता या दोष हो। अधिकांश प्रकरणों में इज़्ज़त केवल निर्बल की ही जाती है, चाहे वह स्वयं पीड़ित पक्ष हो। 

इज़्ज़त का परिमाण भी होता है जिसे इंगित करने के लिये हमने अनेक प्रकार के मुहावरे बना रखे हैं। थोड़ी सी इज़्ज़त चली जाने से लेकर पूरी इज़्ज़त चली जाने के क्रम को कतिपय मुहावरों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है–

  1. हेठी हो जाना– यदि नेता के भाषण में बोला गया सफ़ेद झूठ उजागर हो जाय, तो नेता की हेठी हो जाती है। परंतु नेता यदि चतुर हुआ, तो उससे बड़ा झूठ बोलकर उस हेठी को विपक्ष पर उलट देता है

  2. इज़्ज़त पर बट्टा लगना– यदि दुकानदार घी में चर्बी मिलाकर बेचता हुआ पकड़ा जाय, तो उसकी इज़्ज़त पर बट्टा लग जाता है। यदि वह पकड़ने वाले इंस्पेक्टर को येन-केन–प्रकारेण मना कर छूट जाये, तो यह बट्टा ऐसे छूट जाता है जैसे घड़ी डिटर्जेंट से ज़िद्दी दाग़।    

  3. दो टके की हो जाना– यदि किसी धनी व्यक्ति के बेटे के विवाह में उसके स्तर से कम दहेज़ मिले, तो उसकी इज़्ज़त दो टके की हो जाती है। इसलिये अपनी इज़्ज़त के प्रति सतर्क लड़के वाले दहेज़ का प्रदर्शन करते समय उसमें अपनी ओर से धन-सम्पत्ति मिला देते हैं। 

  4. पगड़ी उछल जाना– यदि किसी व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा हो, और कोई   गुंडा उसके सरेआम दो जूते मार दे,  तो उसकी पगड़ी उछल जाती है। दूसरी ओर उस गुंडे का रुतबा जनसामान्य में बढ़ जाता है। 

  5. नाक कट जाना– यदि थानेदार का लड़का चपरासी का काम कर जीविकोपार्जन करे, तो थानेदार की नाक कट जाती है। यदि थानेदार और चोरों के बीच दलाली करे, तो नाक ऊँची हो जाती है। 

  6. इज़्ज़त लुट जाना– यदि किसी की लड़की अपने होनहार विजातीय प्रेमी के साथ भाग कर विवाह कर ले, तो उसकी इज़्ज़त लुट जाती है। यदि घर वालों के मन माफ़िक नालायक़ लड़के से विवाह कर ले तो इज़्ज़त ही इज़्ज़त है।  

  7. इज़्ज़त पर डाका पड़ जाना– यदि किसी लड़की के साथ बलात्कार हो जाय, तो उस लड़की की (बलात्कारी की नहीं) इज़्ज़त पर डाका पड़ जाता है। इंद्र द्वारा वेष बदलकर अहिल्या के साथ दुष्कर्म करने पर अहिल्या को पत्थर बनना पड़ता है और इंद्र मूँछों पर ताव देकर स्वर्गाधीश बने रहते हैं।

अपनी वक्र सोच के कारण हम इज़्ज़त के हक़दारों की इज़्ज़त का फ़ालूदा बनाते रहते हैं? और ग़ैर-इज़्ज़तदारों को आसमान पर चढ़ाये रहते हैं।   

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

बाल साहित्य कहानी

व्यक्ति चित्र

पुस्तक समीक्षा

आप-बीती

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं