ॐकार बनना चाहता हूँ
काव्य साहित्य | कविता महेशचन्द्र द्विवेदी15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
ब्रह्मांड का अणु अणु है रहता अनवरत
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
परिधि जिसकी हर विंदु स्वयं में है आदि
और है स्वयं में ही एक अंत, स्वसीमित।
लाँघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं, परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूँ।
ॐकार बनना चाहता हूँ।
युगों तक जो बना रहता एक कृष्ण-विवर
अकस्मात बन जाता विस्फोटक सशक्त,
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर उगलता गृह-नक्षत्र।
उस कृष्ण-विवर को है कुम्भकर्णी नींद से
जो जगाता, मैं वह हुंकार बनना चाहता हूँ।
ॐकार बनना चाहता हूँ।
अभेद्य अपने को जो बना बैठा था स्वयं
प्रकाश तक के आगमन का द्वार कर बंद,
न देखता था, और न था सुनता किसी की
अनंत गुरुत्वाकर्षणयुक्त था वह आदिपिंड।
महाशून्य में जो ऊर्जा की भरमार करता
उस महाविस्फोट की टंकार बनना चाहता हूँ।
ॐकार बनना चाहता हूँ।
प्रलय है विश्व का अंत, तो है आदि भी
प्रतीक्षा लम्बी हो, मार्ग में हो व्याधि भी,
पर हर अंत के उपरांत आदि होता उदय,
अंत में ही विद्यमान, सृजन के गुणादि भी।
बन उस सृजन के आरम्भ की आदि-ध्वनि
आदि-सृजन का ॐकार बनना चाहता हूँ।
ॐकार बनना चाहता हूँ।
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