कठपुतलियाँ
काव्य साहित्य | कविता लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव1 Jan 2020 (अंक: 147, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
बचपन से कठपुतली का खेल,
हमको लगता है प्यारा।
रंग बिरंगी कठपुतली नाचे,
ख़ुश होता है मन हमारा॥
कठपुतली के खेल में सारी गुड़ियाँ,
धागे से बँधी हैं रहती।
धागे से आज़ादी वो पाना चाहें
काश! मन से अपने वो चल सकती॥
हम सब धरती पर इंसान,
कठपुतली जैसे रहते बेजान।
कुछ वर्षों हम में प्राण फूँक कर,
कठपुतली जैसा नचाता है भगवान॥
वर्षों पहले नारियाँ भी,
कठपुतली जैसा जीवन जीतीं।
पुरुष प्रधान समाज में नारी,
अन्याय शोषण का शिकार बनती॥
बदल गया नारी का अब तेवर,
जागरूकता से पहचाना अधिकार।
कठपुतली जैसा अब न रह सकतीं,
न सहतीं अब अत्याचार॥
समाज, देश बने जो ठेकेदार,
कठपुतली जैसा हमें नचाते।
जाति धर्म व कुछ लालच देकर,
अपने मर्ज़ी से हमें चलाते॥
किसी की कठपुतली बनने की बजाय,
अपने अस्तित्व को हम पहचानें।
आत्मसम्मान व अस्मिता के लिए,
हम ख़ुद ही निर्णय लेना जानें॥
निज स्वार्थ की पराकाष्ठा में ही,
मनुष्य कठपुतली बन जाता है।
जीवन में अपना असली किरदार,
सच में वह समझ न पाता है॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
कविता
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं