ख़्वाहिश
काव्य साहित्य | कविता कविता15 Jul 2020
थी उसकी ख़्वाहिश
मैं मर जाऊँ
और मेरी आवाज़
अमर हो जाए।
तरसते रहे कान,
सुनने को,
हम मिल जाएँ,
प्रीत अमर हो जाए...
मेरे मरने के
ख़याल से
इक पल भी
को भी नम हुई
होती आँख तुम्हारी
उस इक पल में
मैं जी लेती
उम्र सारी...
पढ़ पाते गर
मेरा दिल तुम
ज़र्रे - ज़र्रे में
ख़ुद को पाते
भ्रम तेरी चाहत का
गर बना रहता
ये दिल कुछ दिन
और जी लिया होता...
अब ये दिल
दिल कहाँ रहा?
खंडहर बन गया
तेरी चाहतो का
दिल की बस्ती
वीरान कर गया
ये सफ़र तेरी
ख़्वाहिशों का!
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