लहुलुहान अख़बार
काव्य साहित्य | कविता शबनम शर्मा15 Sep 2019
इक दिन सुबह उठते ही
इक लहुलुहान
अख़बार मुझसे लिपट गया
मैंने उसे ढांढस बंधाया
और उसकी दास्ताँ
सुनने के लिए
उसे कुर्सी पर बिठाया
बोला सीना फाड़कर
देख-देख! कितने शहीदों का
खून मुझ पर लगा है
ये ही नहीं रेल दुर्घटनाओं,
बलात्कारों व कई
हवाई दुर्घटनाओं के
उलीचे हुए खून के
छींटे भी पड़े हैं मुझ पर,
ये एक दिन की नहीं
रोज़ मर्रा की बात
बन गई, थक गया हूँ
हार गया हूँ कुछ तो कर मेरे लिए,
वह चुपचाप अपना
आँचल सँभाल बैठ गया
जब उसने देखा
कि उसे देखकर मेरी
आँखों से भी आँसू
टपक रहे थे।
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