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काव्य साहित्य | कविता अवनीश कुमार15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
सन्नाटा पसरा
हर गली, हर कूचे और
हर नुक्कड़ पर;
शहर की गलियाँ हो गईं
किसी स्याह जंगल के
सुनसान रास्तों-सी;
खोमचे, ठेले अब
ग़ायब हो गए हैं;
अब वे मलिन बस्तियों से
कालोनियों में नहीं आते;
अब चौबीसों घण्टे
बेबस हैं वे
बदबूदार घरों में रहने को;
दीवारों में बंद ज़िंदगियाँ
तलाश रहीं हैं
खुला आसमान।
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