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नाम में क्या रखा है?

विश्व प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर के यूँ तो अनेकों उद्धरण साहित्य की दुनिया में अमर हैं, उनके रोमियो जूलिएट नामक नाटक से एक उद्धरण निम्न है –

“What’s in name? That which we call a rose by any other name would smell as sweet.”  

‘नाम में क्या रखा है? गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो भी ऐसी ही ख़ूबसूरत महक देगा’ 

काका हाथरसी, हिंदी साहित्य में हास्य-व्यंग्य के एक सुप्रसिद्ध नाम रहे हैं, उनकी कुण्डलियाँ और फुलझड़ियाँ जग ज़ाहिर हैं, जिनमें से “नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?” प्रसिद्ध है, आपने पढ़ी होगी।  

आप सोच रहे होंगे कि ‘नाम’ को लेकर आख़िर मैं क्या कहना चाहता हूँ? तो बात यह है कि मैं मूलतः भारत देश के उत्तर प्रदेश राज्य के जनपद औरैया का निवासी हूँ। जो मध्यकालीन भारत में डहार नामक क्षेत्र का हिस्सा था, प्रसिद्ध इतिहासकार अलबरूनी ने डहार देश के गांगेय देव नामक राजा का वर्णन किया है, बाद में जिसका पुत्र कर्ण दहारिया एक प्रतापी राजा बना, ख़ैर यह एक दूसरा विषय है, फिर किसी अन्य लेख में इसकी चर्चा करूँगा। 

जिस गाँव में मेरा बचपन गुज़रा, प्रायः वहाँ पहले बहुत अजीबोग़रीब नाम होते थे। चूँकि उस क्षेत्र की बोली ब्रज, अवधी, कन्नौजी तथा बुन्देलखंडी मिश्रित है, जिसके कारण नाम के अंत में ‘आ’ स्वर जोड़कर पुकारा जाता था। उदहारण के लिए यदि किसी का नाम मलखान है तो मलखना, सुलखान की जगह सुलखना, मुलायम है तो मुलयमा, कल्लू है तो कलुआ, मनोज है तो मनोजा आदि कहकर पुकारा जाता। बोली की इस विशेषता का ज़िक्र प्रसिद्ध भाषाविद गियर्सन ने अपनी पुस्तक लिंग्युस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया में भी किया है। हालाँकि कुछ समय पहले तक यह आम बात थी, पर अब उचित नाम लेकर पुकारा जाने लगा है। 

नामों में कुछ ऐसे नाम भी होते, जो अजीब तो लगते पर उनका एक विशेष अर्थ होता जैसे पुरुषों में कालका, पुत्तू, भिखारी, महातिया, बारे, बाला आदि और महिलाओं में रम्पो अर्थात रामप्यारी, रमकला अर्थात रामकली, फुलवा, केतका आदि आदि। कुछ नाम तो हास्यास्पद स्थिति पैदा कर देते हैं, बकौल काका हाथरसी नाम बड़े और दर्शन छोटे, उदहारण के लिये – "नाम नयनसुख और आँख से अंधे, नाम तखत सिंह और घर में नहीं है पटुलिया (लकड़ी की पट्टी)" आदि।

एक दिन मैं प्राचीन बौद्ध साहित्य में संयुक्त निकाय पढ़ रहा था, तो देवता सयुंक्त के नन्दति सुत्त में एक छंद मिला, जो इस प्रकार है –

नन्दति पुत्तेहि पुत्तिमा॥ गोमिको गोहि तथ-एव सोकती॥

पुत्रों वाले अर्थात माता-पिता अपने बच्चों से आनंदित रहते हैं, गायों वाले अपनी गायों से आनंदित रहते हैं, सांसारिक वस्तुओं से ही मनुष्य को आराम मिलता है, जिसके पास कोई वस्तु नहीं उसे आनंद नहीं।  

इसी प्रकार एक बार 1961 में सूचना विभाग उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘बंगला साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ में ‘आरम्भ काल; सिद्ध साहित्य’ नामक अध्याय को पढ़ते हुए मेरी नज़र ‘केतका’ नाम पर पड़ी, जो नाथ संप्रदाय के अनुसार सृष्टि रचना की अहम् पात्र, और शक्ति के समान प्रथम देवी हैं, उसी अध्याय में केतका दास नामक एक आदि देवी के एक भक्त का भी वर्णन पढ़ा। हालाँकि केतक नाम से एक फूल भी है।

चूँकि हमारे पिताजी का नाम श्री पुतई लाल दोहरे और माता जी का नाम श्रीमती केतकी देवी है, हालाँकि दोनों अब इस दुनिया में नहीं है, क्षेत्रीय बोली का असर होने के कारण हमारी दादी पिताजी को ‘पुत्तु’ या ‘पुतई’ कहकर पुकारती, इसी प्रकार ननिहाल में माँ को ‘कितका’ कहकर बुलाया जाता, तो असहज सा लगता, पिताजी के नाम के साथ तो कुछ किया नहीं जा सकता था, पर माता जी के नाम को काग़ज़ातों में ‘केतकी देवी’ नाम से दर्ज करवा दिया, जिसे हिंदी के पहले कहानीकार इंशा अल्ला खां के कथाग्रंथ ‘रानी केतकी की कहानी’ से लिया था।

उक्त नामों में छिपे अर्थ पढ़कर आज ऐसा महसूस होता है कि हमारे पूर्वज कहीं अधिक जागरूक और सजग थे, जिन्हें प्राचीन साहित्य का इतना ज्ञान था, कि उनके नामों के अर्थ समझने में हमें दशकों लग गये। कितका या केतका अर्थात आदि देवी शक्ति, पुतई जो पाली भाषा के पुत्तेहि का तद्भव है, और पुत्त शब्द से बना हुआ है, जिसका अर्थ पुत्रों वाले अर्थात माता-पिता है। हमारे माता-पिता दोनों ने अपने नाम के अनुरूप ही सामाजिक और पारवारिक ज़िम्मेदारियों का बख़ूबी निर्वहन किया। 

इस लेख को लिखने का पहला आशय तो यह है कि कई बार हमें ऐसा महसूस होने लगता है कि हमारे पूर्वज उतना ज्ञान नहीं रखते थे, जितना हमें है, मेरे विचार से यह पूर्ण सत्य नहीं है, प्राचीन ज्ञान और साहित्य को समझने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं और फिर कहावत भी है ‘ओल्ड इज गोल्ड’। दूसरा आशय, जब किसी पेड़-पौधे और जीव को वैज्ञानिक नाम दिया जाता है, वह उसकी वैश्विक पहचान बन जाता है, इसी प्रकार हमारा नाम हमारी पहचान का महत्वपूर्ण अंग है, बेशक़ उसके निहितार्थ कुछ भी हों। अंत में यही कहूँगा कि आगे बढ़ने के लिए एक नज़र पीछे रखना बहुत आवश्यक है, ताकि पूर्वजों द्वारा छोड़ गए ख़ज़ाने को कंकड़ समझ कहीं हम फेंक तो नहीं रहे।
 

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टिप्पणियाँ

जय विलास 2021/07/29 05:15 PM

भाषा एवं बोली के सम्बंध मे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं नवीन जानकारी देता हुआ लेख । ऐसे ही लेखों की आज बहुत ही जरूरत है।

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