नवगीत संग्रह ‘भीतर का हंसा गवाह है’
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा बृजेश सिंह1 Feb 2028 (अंक: 208, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
समीक्षित कृति: भीतर का हंसा गवाह है (नवगीत संग्रह)
लेखक: नवगीतकार-योगेन्द्र दत्त शर्मा
प्रकाशक–पराग बुक्स, ए-15, जी. एफ-2, श्याम पार्क एक्स.,
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
पृष्ठ: 128,
मूल्य: रु. 200/-
नवगीतकार का संक्षिप्त परिचय
देश के सुविख्यात साहित्यकारों एवं कवियों का प्रमुख स्थल ‘गाजियाबाद का कवि नगर’, जिसमें निर्मित भवन ‘कवि कुटीर’ को बेहिचक साहित्य धाम कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि यह हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में पारंगत, वरिष्ठ नवगीतकार एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक रहे श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा जी का निवास स्थान भी है। ‘कवि कुटीर’ जो हिंदी के प्रमुख हस्ताक्षर एवं नवगीतकार के पिताजी सुप्रसिद्ध कवि स्व. कन्हैया लाल ‘मत्त’ जी के कारण कितनी ही साहित्यक चर्चाओं, काव्य गोष्ठियों का गवाह रहा है। श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा जी के इस संग्रह से पूर्व आठ अन्य नवगीत संग्रह, दो ग़ज़ल संग्रह, तीन कहानी संग्रह, दोहा संग्रह, तीन उपन्यास के अतिरिक्त बाल कवितायें एवं बाल उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। यदि मैं यहाँ नवगीतकार के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का वर्णन करने लगा तो लेख लम्बा होने की पूर्ण सम्भावना है। ख़ैर . . .
अभी हाल ही में मुझे वरिष्ठ नवगीतकार योगेन्द्र दत्त शर्मा जी से उनके निवास स्थान पर मुलाक़ात करने का सौभाग्य मिला। इसी मुलाक़ात में उन्होंने मुझे अपने प्रथम नवगीत संग्रह ‘खुशबुओं के दंश’ सहित वैश्विक महाआपदा से जूझते जनमानस की व्यथाओं से उत्पन्न संवेदनाओं को समेटे नवगीत संग्रह ‘भीतर का हंसा गवाह है’ भेंट स्वरूप प्रदान किया।
नवगीत संग्रह ‘भीतर का हंसा गवाह है’ पर मैं अपनी बात पंद्रहवी सदी के समाज सुधारक एवं जन-जन के प्रिय कवि कबीर दास के एक प्रसिद्ध भजन की पंक्तियों से करता हूँ:
कंकड़ चुन चुन महल बनाया,
लोग कहें घर मेरा।
ना घर तेरा ना घर मेरा,
चिड़िया रैन बसेरा
हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा . . .
संत कबीर दास जी के भजन, पद एवं दोहे आज भी उतने ही प्रभावी है जितने कि उस कालखण्ड में थे। सर्वविदित है कि उनकी रचनायें समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, धार्मिक आडम्बरों के विरुद्ध उठने वाले स्वर का आज भी प्रतिनिधित्व करती हैं, उनकी उलटबासियों के तो ख़ैर क्या कहने!
उपर्युक्त पंक्तियों को उदहारण स्वरूप आपके समक्ष रखने का कारण संग्रह का शीर्षक ‘भीतर का हंसा गवाह है’ है। यह अटल सत्य है, हंसा अर्थात् जीव और पिंजरा अर्थात् काया, हंसा पिंजरे का स्वामी नहीं है, परन्तु इस पिंजरे में रहते हुए वह एक जागरूक नागरिक/साहित्यकार बन सकता है और संसार में चल रहे युद्धों, महाआपदा और अन्य पर्यावरणीय विभीषिकाओं के दौर में अपनी और जन-जन की वेदनाओं-संवेदनाओं को साहित्य की किसी भी विधा जैसे लेख-आलेख, कथा, उपन्यास, गीत, नवगीत या फिर कविता के रूप में सृजित कर सकता है। जिनके माध्यम से जन मानस के मनो-मस्तिष्क में व्याप्त होती जा रही घृणा, विरक्ति और पनपती अनगिनत आशंकाओं के निवारण हेतु प्रतिरोध दर्ज कराते हुए देश और समाज में फैलते जा रहे नैराश्यान्धकार को दूर करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। आइये! सर्वप्रथम विश्व के किसी ना किसी कोने में चल रहे युद्ध के सन्दर्भ में इसी संग्रह से एक नवगीत को देखते हैं:
हर तरफ़ चीत्कार, हाहाकार बचता है
घर बिखर जाते कई, कोहराम मचता है
युद्ध कोई हल नहीं होता
समस्या का
देश की गति, मति, प्रगति
संस्कृति पिछड़ती है! (पृष्ठ सं. 87)
चूँकि ग्रीष्म ऋतु चल रही है अथवा कहा जाये तो मेरे द्वारा यह लेख लिखने के दौरान बैसाख आरम्भ होने जा रहा है, पर्यावरणीय असुंतलन के कारण नगर तो क्या गाँव में भी गौरैया अथवा बया का दिखना बंद हो गया है, दिन-प्रतिदिन उनकी संख्या नगण्य होती जा रही है, जिसे बिम्ब बनाकर नवगीतकार अपने मन में फैली चिंताओं को उजागर करता है जो आज के सन्दर्भ में वाजिब है:
विदा हुआ दिन, घिरा अँधेरा
उदास अनुभव नया नहीं है!
निहारता है अतीत गुमसुम
खड़ा उठकर गया नहीं है!
. . . . . . . . .
निरा धुँधलका, मचा तहलका, कहीं निरापद जगह न कोई
न दुख निवारण, व्यथा अकारण, किसी तरह की वजह न कोई
मिली दिलासा अनेक, हिरनी
मगर निर्भया नहीं है!
न व्योम में ही, न नीड़ में ही
कहीं सुरक्षित बया नहीं है। (पृष्ठ सं. 35)
नवगीतकार के शब्दों में कहा जाये तो कवि हदय प्रायः शांत रहने वाला सागर है, परन्तु उसमें अनेकों उद्दात लहरें भी उठती गिरती हैं, जिसके फलस्वरूप कई नवगीतों में भक्तिकालीन और रीतकालीन बोध के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक चेतना का सामंजस्य दृष्टव्य है और प्रसिद्ध पंक्तियाँ याद आती है ‘आओ उस मौन को दिशा दे दें / जो अपने होंठों पर अलग-अलग पिघलता है’:
मैं प्रकटतः बहुत सौम्य हूँ, शांत हूँ
वस्तुतः व्यग्र, बेचैन एकान्त हूँ! (पृष्ठ सं. 61)
‘भीतर का हंसा गवाह है’ के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि हृदय में डेरा डाले हंसा का स्वभाव परिस्थितजन्य है, जिसके कारण ही वह सम-विषम परिस्थितियों की स्वाभाविक गवाही देता है। वही हंसा हृदय रत्नाकर की उद्वेलित भावनाओं के ज्वार संग बह आये शाब्दिक मोतियों को चुनकर निखारता, संजोता और एक पोथी के रूप में संकलित करता है; पोथी में संगृहीत जन-जन की संवेदनाएँ पाठकों के हंसा तक बख़ूबी संप्रेषित होती हैं। देखें शीर्षक नवगीत-हंसा गवाह है:
गुज़र रही है महात्रासदी
भीतर का हंसा गवाह है।
उमड़ रहे है भाषातिरेक में
नीर-क्षीर वाले विवेक में
निष्प्रभ चेहरों पर उदासियाँ
अंतस में उठती कराह है!
. . . . . . . . .
अवसादों की दीर्घ शृंखला
घुमड़ रहा सागर अथाह है!
. . . . . . . . .
लय छंदों में व्यक्त हो रहा
महाकाव्य का विकल दाह है! (पृष्ठ सं. 124)
हालाँकि नवगीतकार ने महाआपदा में अकाल काल-कलवित मजबूरों-मज़दूरों की त्रासद स्मृति और उससे उत्पन्न संवेदनाओं को अपनी लेखनी के माध्यम से वर्णित करते हुए अपने इस संग्रह को उन्हीं को समर्पित किया है और शीर्षक दिया ‘भीतर का हंसा गवाह है’। संग्रह में 101 नवगीतों को स्थान दिया है और जिसे पराग बुक्स ने प्रकाशित किया है। यहाँ इस तथ्य को झुठलाया भी नहीं जा सकता कि महाआपदा के दौरान हुआ पलायन कहीं न कहीं आज़ादी के समय हुए महापलायन की भयावह याद दिला गया।
कौन है ये लोग
जो चुपचाप चलते जा रहे हैं!
कभी सध जाते
कभी गिरते, सँभलते जा रहे हैं!
. . . . . . . . .
छिन गई रोजी, अचानक
शेष खाने को न रोटी
थी नहीं क़िस्मत कभी ऐसी
कि जैसी हुई खोटी
वेदना की बर्फ़ में
गलते, पिघलते जा रहे हैं!
. . . . . . . . .
ये हमारे बंधु हैं
जो आज विस्थापित हुए हैं
त्रासदी की मार दुहरी सह रहे हैं
शापित हुए हैं . . .
सुलझने की जगह
इनके प्रश्न टलते जा रहे हैं! (पृष्ठ सं. 44-45)
नवगीतकार महाआपदा की त्रासदी से पलायन के लिये मजबूर उत्पादक, श्रमिक, प्रवासियों के मन में उठते प्रश्नों का उल्लेख इस प्रकार करता है, देखें:
इस शहर के निर्माण में
मैंने निभाई भूमिका
जिस पर शहर यह है टिका
मैंने रखी बुनियाद है
क्या आपको कुछ याद है . . . (पृष्ठ सं. 46)
हम नगण्य श्रमिक देशवासी
कल तक थे यहीं के निवासी
घूम गया नियति-चक्र काल का
हम घोषित हो गये प्रवासी! (पृष्ठ सं. 47)
महामारी के समय लॉकडाउन को परिस्थितियों को बयाँ करती पंक्तियाँ ‘बैठे रहो एकांत में’ से:
बाहर हवा में है ज़हर, है संक्रमित सारा शहर
घर में शरण जब मिल रही, बैठे रहो एकांत में! (पृष्ठ सं. 40)
ऐसा प्रतीत होता है कि सवाल-जवाब का समय व्यतीत हो गया है, नीति-निर्धारण हेतु सदनों में पक्ष-प्रतिपक्ष के मध्य होने वाला प्रश्नकाल भी शून्यकाल में परिवर्तित हो गया है, जिसे लेकर कुछ व्यंग्यात्मक नवगीत कटाक्ष करते हुए:
महासदन में शून्यकाल है
कोई प्रश्न न मुद्दा कोई
पड़ा समस्या का अकाल है
अब तो केवल भेड़चाल है . . . (पृष्ठ सं. 108)
बेबाक बातों के लिए मौसम कहाँ अनुकूल है
मन में उठे हर प्रश्न पर तू दे रहा क्यों तूल है
उत्तर न कोई है कहीं
मत प्रश्न कर, ख़ामोश रह! (पृष्ठ सं. 102)
जब पूरे विश्व में इस महाआपदा का क़हर जारी था तो इस आपदा में अवसर खोजने वालों से नवगीतकार का जिज्ञासु मन सवालिया निशान लगाता है:
आपका व्यक्तित्व है कितना चमत्कारी
आपदा को बदल देते
आप, अवसर में! . . . (पृष्ठ सं. 56)
हम समझ पाये नहीं
यह क्या करिश्मा है
आपदा कैसे बदलती है
सुअवसर में! . . . (पृष्ठ सं. 57)
प्रस्तुत नवगीत संग्रह में नवगीतकार ने अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने के लिए, कथ्य को मज़बूत आधार देने के लिये मिथकीय, ऐतिहासिक एवं बौद्ध साहित्यिक प्रसंगों के साथ कुछ अनोखे चाक्षुस-अचाक्षुस बिम्बों का बख़ूबी प्रयोग किया है। कुछ बानगियाँ:
तू रत्नाकर तो नहीं कि उलझे जिस-तिस से
. . . . . . . . .
हो क्रौंच-विरह या राम-जानकी की बिछुड़न त
तू ही रचता है प्रथम श्लोक या रामायण . . . (पृष्ठ सं. 13)
आप यक्ष-गंधर्व-रुद्र-वसु
वायु-अग्नि हैं, इंद्र-वरुण हैं! (पृष्ठ सं. 75)
कपिलवस्तु से श्रावस्ती तक
हाट, वीथिका से बस्ती तक
सहमा-सहमा नीति न्याय है
जनसाधारण निस्सहाय है!
. . . . . . . . . . . .
संकट में मज्झिम निकाय है! (पृष्ठ सं. 122)
(मज्झिम निकाय, प्राचीन बौद्ध धर्म ग्रन्थ त्रिपिटक का एक हिस्सा है)
किसी महागाथा में मुख्य कथा होना था! . . .
. . . . . . . . .
तांत्रिक का इंद्रजाल या जादू-टोना था
हमें अतल और सतह से कल्मष धोना था (पृष्ठ सं. 123)
चपल जुगनुओं की बस्ती में
कहीं खो गया है ध्रुव तारा
नक्कारों के घमासान में
शोक मनाता है इकतारा
बदल गई भंगिमा गगन की
हर पंछी ने पर बदले हैं! (पृष्ठ सं. 104)
काम्य नहीं, पूर्णकाम हो गये
संज्ञा थे, सर्वनाम हो गये (पृष्ठ सं. 52)
दर्द से हर कला निकलती है!
. . . . . . . . .
सूक्ष्म संवेदना तरल होती
बिम्ब की नील झील उगती है
हंसिनी छोड़ शुभ्र मुक्तादल
छंद की शब्द खील चुगती है
कल्पना की उदग्र-सी मछली
फिर कहाँ हाथ से फिसलती है! (पृष्ठ सं. 14)
गीत और छायावाद के रवि के पश्चिमांचल की ओर रुख़ करने के दौरान नीलाम्बर में नवगीत की इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने वाले मनीषियों, साहित्यकारों का यों तो कोई सानी नहीं है, परन्तु मानवीय संवेदनाओं को ना उकेरने वाले साहित्यिक शिल्पियों, कवियों, कलाकारों और प्रमुखतः नवगीतकारों की मनोस्थिति पर किये गए व्यंग्य पर, आइये एक दृष्टि डालते हैं:
तू है अलबेला कलाकार
सौन्दर्य, प्रेम के गीत सुना
श्रेयस्कर केवल यही राह
तुझको क्या, यह सारी दुनिया
होती है, हो जाये तबाह!
. . . . . . . . .
भूखों मर जायें बेगुनाह, मजबूरी करले आत्मदाह
क्यों सुनें कभी तेरा उछाह, घायल मानवता की कराह
औरों की पीड़ा, कष्ट को
तु न दे कभी कोई पनाह! (पृष्ठ सं. 72)
यों तो प्रस्तुत नवगीत संग्रह प्रमुखतः हिंदी भाषा में ही है, परन्तु समय सदानीरा की प्रतिपल रूप बदलती धारा में बदलते ग्रामीण और नगरीय परिवेश में उपेक्षित, श्रमिक अथवा वंचित समुदाय में अलख जगाने के लिए उनकी बोली में प्रयुक्त होने वाली लोकोक्तियों, मुहावरों का हिंदी काव्य की नवगीत विधा में प्रयोग किया जाना आवश्यक है। वर्तमान में जहाँ आज का युवा हिंग्लिश प्रेमी होता जा रहा हो वहाँ कुछ विदेशी शब्दों का मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। संभवतः नवगीतकार का ग़ज़ल प्रेमी होना भी एक कारण है नवगीतों में देशज, आंचलिक शब्दों के साथ-साथ उर्दू शब्दों का मिलना-उदाहरणार्थ:
बिनु काज दाहिने-बायें, भाती, फागुन, पूस, जेठ, उलीचिये, रीझिये, रतजगा, माटी, ग़ुलाम, मरहम, गुमनाम, पीर, आदमीयत, अजनबीयत, फ़रियाद, हिफ़ाज़त, ईजाद, आइस्क्रीम, कूलर, आडर, टेबल, प्लेट, फ़ेसबुक . . . आदि।
नवगीत संग्रह ‘भीतर का हंसा गवाह है’ को हिंदी काव्यधारा की प्रमुख विधा नवगीत के मापदण्डों पर तौला जाये तो एक बेहतरीन संग्रह है, जिसका कैनवस वृहद् है। शिल्पिक उपकरण जैसे भाषा, छंद, गेयता, प्रतीक, व्यंग्य, अलंकार, बिम्ब और वाक्य विन्यास कथ्य की अभिव्यक्ति को समर्थ बनाते दिखते हैं। जहाँ संग्रह में मानवीय भावात्मकता को प्रमुखता दी गयी है तो जीवन दर्शन, अध्यात्म का भी विशेष स्थान है। यद्यपि इस नवगीत संग्रह के अंगों में प्रमुख अंग महाआपदा की त्रासदी से उपजी संवेदनायें हैं, अन्य अंग उपेक्षित-शोषित समाज का स्वर है और शोषक वर्ग से प्रश्न करने वाला मुख भी है। महाआपदा के गहराते मेघों और शोषण के अँधियारे में कुछ नवगीत आशाओं के दीपों का उजास भी फैलाते हैं:
अंधेरे का घना साम्राज्य है, पर सूर्य निकलेगा
समय को तो बदलना है, समय का चक्र बदलेगा
जमे जो बर्फ़ के कण
हम इन्हें अंगार कर लेंगे!
परिस्थतियां सभी
अपने लिए
हमवार कर लेंगे! (पृष्ठ सं. 63)
इन अस्वीकारों में
अनगिनत नकारों में
यह बड़ी ग़नीमत है, कुछ सकार अब भी है!
. . . . . .
खिला हुआ पारिजात, कोविदार अब भी है!
मंद, मृदुल स्वर बजता सितार अब भी है! (पृष्ठ सं. 128)
अंत में वरिष्ठ नवगीतकार योगेन्द्र दत्त शर्मा जी को इस बेहतरीन नवगीत संग्रह ‘भीतर का हंसा गवाह है’ के लिये हार्दिक बधाई एवं भविष्य में आने वाली कृतियों के लिये शुभकामनायें, साथ ही आशान्वित हूँ कि वह भविष्य में अपने पाठकों को और भी उत्कृष्ट संग्रह पढ़ने का अवसर प्रदान करते रहेंगे।
सम्पर्क:
बृजेश सिंह
108-A, शंकर पुरी, गाज़ियाबाद-201009
मोब. 981062856
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"कही-अनकही" पुस्तक समीक्षा - आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी
पुस्तक समीक्षा | आशा बर्मनसमीक्ष्य पुस्तक: कही-अनकही लेखिका: आशा बर्मन…
'गीत अपने ही सुनें' का प्रेम-सौंदर्य
पुस्तक समीक्षा | डॉ. अवनीश सिंह चौहानपुस्तक: गीत अपने ही सुनें …
सरोज राम मिश्रा के प्रेमी-मन की कविताएँ: तेरी रूह से गुज़रते हुए
पुस्तक समीक्षा | विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: तेरी रूह से गुज़रते हुए (कविता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
सामाजिक आलेख
कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं