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प्यास की पगडंडियों पर

 

समीक्षित कृति: प्यास की पगडंडियों पर (नवगीत संग्रह) 
नवगीतकार: जगदीश पंकज
प्रकाशक: ए.आर. पब्लिशिंग कम्पनी, 
 1 /11829 पंचशील गार्डन, 
 नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
पृष्ठ:127
मूल्य: 295/-(अमेज़ोन पर भी उपलब्ध) 

‘प्यास की पगडंडियों पर’ नवगीतकार जगदीश पंकज का सातवाँ नवगीत संग्रह है जिसमें उनके 60 नवगीतों को स्थान दिया गया है। संग्रह के सम्बन्ध में एक पाठक के तौर पर मैं अपनी बात एक प्रसिद्ध उद्धरण से आरम्भ करता हूँ, ‘भले ही यह तथ्य अजीब लगे लेकिन यह सही है कि प्रत्येक क्रांतिकारी कुछ भी होने से पहले प्रेमी होता है’। साथ ही प्रकृति के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पन्त की पंक्तियाँ स्मरण हो आती है ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’। मानव हृदय तो भावों से भरा हुआ होता है और उस पर एक कवि हृदय! जो भावनाओं का सागर होता है। प्रकृति जीवन का अजस्र स्रोत है, प्रकृति और रचनाकार का प्रकृति-प्रेम, मानव-प्रेम का ही एक रूप है। एक कवि अपने अभ्यंतर में बंधुत्व, सौहार्द, मैत्री, प्रेम, करुणा के साथ प्राकृतिक रूप में पर्यावरणीय संतुलन की प्यास लिए कहाँ-कहाँ नहीं भटकता है:

चल रहा है
प्यास की पगडंडियों पर
खोजता मन बावड़ी सौहार्द जल की
 . . . 
रोज़ प्रस्तावित/सुबह की आस में सब
टकटकी नभ में/लगाये देखते हैं
सूर्य के आलेख भी/आधे-अधूरे
चिट्ठियों पर आज भी/ कल के पते हैं
                     (शीर्षक रचना-प्यास की पगडंडियों पर) 

नवगीत संग्रह के बाहरी आवरण में दिखाई दे रहे प्रमुख हरे रंग को रंगों के दर्शन एवं हिन्दी साहित्य सहित अन्य भाषाओं के साहित्य में जीवन से ओत-प्रोत भावों और आशाओं का प्रतीक माना गया है। रचनाकार जीवन में उन्नति के पथ पर अग्रसरता की आस में पीढ़ियों के लिए सन्देश देते हुए कहता है, यथा:

उँगलियों से तितलियों के पंख पकड़े
एक दिन बच्चे उड़ायेंगे हवा में
खोजने को प्यार की रंगीन दुनिया 
                    (एक दिन बच्चे उड़ायेंगे हवा में) 

पीढ़ियाँ-भावी/सुरक्षित फलें-फूलें
बो रहा हूँ /मैं स्वयं को क्यारियों में
                    (बो रहा हूँ मैं स्वयं को) 

कवि हृदय जब आम जनमानस के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में प्रदूषित हवा, पानी, शहर और कलुषित विचारों से दो-चार होता है तो वह चीत्कार कर उठता है:

सुबह भी मिलती/जहाँ पर हो सिसकती
और दूषित जल जहाँ हो स्रोत पर ही
नागरिक भी/नियम को ठेंगा दिखाते
उस शहर का सोच कितना हुआ सतही
गन्दगी से/बजबजाते हुए नाले
फेंकते बदबू निरंतर छोड़ते मद
                    (यह शहर, मेरा शहर) 

आरियों को छूट है अब/काट दें जड़ /
डालियों के साथ/हरियल वृक्ष की भी
फेफड़ों को दंड दें अब
माँगते ताज़ा हवाएँ / इस सदी में
शुल्क निर्धारित करें मिल
पाँव रखने के लिए/सूखी नदी में
                    (आरियों को छूट है अब) 

हिंदी साहित्य के विकास में यों तो गीतों का प्रमुख स्थान रहा है परन्तु छायावाद के पश्चात गीत का विकसित रूप और वर्तमान काल में हिंदी साहित्य की एक प्रमुख विधा नवगीत है। नवगीत के प्रमुख तत्वों में से एक व्यक्तित्व-बोध अर्थात्‌ सामूहिक सापेक्षता में आम आदमी के बोध को पैमाना माना जाये तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वरिष्ठ नवगीतकार जगदीश पंकज जी उन रचनाकारों में से एक हैं जो अपनी रचनाओं के माध्यम से आम आदमी के बोध रूपी तत्व का अपने पाठकों तक बख़ूबी सम्प्रेषण करते हैं। प्रगतिवादी, जनवादी नवगीतकार जगदीश पंकज की विद्रोही क़लम ने अपने सद्य: प्रकाशित नवगीत संग्रह ‘प्यास की पगडंडियों पर’ की अधिकतर कृतियों में सदियों की उपेक्षा से हाशिए पर पहुँचे तबक़े के लोगों, वंचितों, शोषितों, उत्पीड़ितों, तिरस्कृत और सर्वहारा समाज का स्वर मुखर किया है: 

झूठे आत्मदंभ के कारण
वर्ण-जाति का छल बाक़ी है
 . . . 
अभिनन्दन करती सत्ता ने
निर्बल पर ही वार किया है
                    (अपनेपन के सब संबोधन) 

बैठी हुई व्हीलचेयर पर
स्वाभिमान की विवश चेतना
खोज रही विकलांग समय में
सपनों की आदिम इच्छाएँ
                    (सपनों की आदम इच्छाएँ) 

इसके साथ-साथ उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया एवं महामारी काल की परिस्थितियों से उत्पन्न विद्रूप विषमताओं के कारण आम जनमानस के मनो-मस्तिष्क में उठ रहे प्रतिरोध, लताड़, चुनौती, विरोध को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है:

लकड़ियाँ, उपले / रखे हैं पास में
नहीं चूल्हे में/तनिक भी आग है, 
आत्मनिर्भरता / कहाँ पर छिप गयी
चल रहा इस मंत्र का / बस राग है
                    (जब विकट संकेत घर के) 

आग की चिंगारियाँ / बिखरी पे हों
तब घृणा या द्वेष का / क्या आकलन है
तर्जनी अपनी उठाकर / किसे कह दें
हाँ यही है, बस यही। दोषी सघन है
रोज़ संचित हो रहा आक्रोश मन में
कब युवा कर जाय / सीमा का उल्लंघन! 
                    (छल भरी आश्वस्तियों से दग्ध होकर) 

दौड़ती-सी, भागती-सी / फिर रही है मौत
सड़कों, अस्पतालों / और गलियों में मचलकर
                     (दौड़ती-सी फिर रही है मौत) 

अख़बारों के मुख पृष्ठों पर / छपे हुए उजले विज्ञापन
शब्दहीन भाषा में मुखरित / अहंकार के अग्रलेख हैं 
                                        (अख़बारों के मुख पृष्ठों पर) 

संग्रह में गत वर्ष अमेरिका में श्वेत पुलिसिया क़हर में अश्वेत फ्लायड की मृत्यु हो जाने के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रंग-भेद को लेकर जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हुए, रंगभेद को लेकर एक नवगीत पुरज़ोर तरीक़े से अपनी बात पाठक के समक्ष रखता है तो वहीं अन्य नवगीत में अपने ही देश में हुए बहुचर्चित आंदोलनों के साथ-साथ किसान आन्दोलन की झलक भी देखने को मिलती है: 

काला क्रोध/सड़क पर आकर
चीख-चीखकर पूछ रहा है / रंग-नस्ल के अहंकार से
काला दर्द / प्रश्न करता है / अहंकार की श्वेत सदी से
नस्लभेद या। रंगभेद की / ठहरी सड़ती हुई नदी से 
                                                            (काला क्रोध) 

आकाश ओढ़कर लेटे, रख / जाड़े की गठरी सिरहाने
धरती की नंगी काया पर / हैं बैठे हुए न्याय पाने
 . . . . . . 
जो चला हथेली रखे जान 
जय-जय जवान, जय-जय किसान
                                        (जय-जय जवान, जय-जय किसान) 

इस नवगीत संग्रह की सबसे अंतिम रचना जो बेटियों और उनकी सुरक्षा को लेकर है, पाठक का ध्यान बरबस आकर्षित करती है:

अब उदासी के / क्षणों को भूलकर / बेटियाँ लिखतीं समय की डायरी . . . 

इस पूरे संग्रह में नवगीतकार का अभिधात्मक, व्यंजनात्मक कौशल देखते ही बनता है। चाक्षुस-अचाक्षुस बिम्बों, प्रतीकों के साथ मुहावरों-लोकोक्तियों संग कुछ अनूठे प्रयोगों के उदाहरण पढ़ने को मिलते हैं, यथा:

रस्सी जली हुई है लेकिन / अभी तलक भी बल बाक़ी है 
जहाँ विवशता खोद रही है / घास खेत में। प्रसव वेदना से कराहती / बैठ अकेली
आग को गाने लगी हैं आँधियाँ अब / बादलो! कुछ देर / बरसो अब नगर में
नींद उड़ गयी सिंहासन की / शासन को आ रहा पसीना
अंशतः / स्वीकार मिल पाया नहीं, पर / हम घृणित दुत्कार पाकर भी तने हैं / हमीं हैं वंशज बबूलों के
डर है, मद में जला न दें वे / लंका छोड़, अयोध्या सगरी
कुछ सजे मुखड़े बचाने हैं / नीचता की / कींच को धोकर / ढीठता ललकारती ख़ुद ही / नागफनियों की फ़सल बोकर
कुछ गूँगे, बहरे, अंधे से / खड़े हुए। चौखट पर दिन
चंदन वन हो गया विषैला / भौचक हैं विषधर / कौन आ गया इधर, यहाँ / यह किसका हुआ असर
कितनी विवश चाँदनी बैठी / मावस के घर में / तेल चमेली मला / छंछूदर के किसने सर में . . . कुलवधुओं के घूँघट में / सिसके मौसम के स्वर 

गणितीय प्रतीकों के माध्यम से अनेकों रचनाओं में कथ्य को विस्तार दिया गया है:

सहमतियों और असहमतियों की गणना भी / कर रहा समय का लेखाकार / निरन्तर ही
आप बस रेखीय गणना में लगे हैं . . . संतुलन में गुणनफल का जब दख़ल हो / भागफल अपनी फ़सल / लहरा चुके हैं
नहीं रख सके अंक सुरक्षित / कभी किसी भी समीकरण के
बारहखड़ी बदल डाली / संकेतों की
प्रगति की परियोजना में। नाम मेरा भी / लिखा है / पर नहीं अनुपात के अनुसार

रचनाकार ने अनेकों नवगीतों में रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों के दृष्टान्तों और भारतीय दर्शन का भली-भाँति उपयोग किया है, कुछ उदाहरण देखें:

यक्ष प्रश्नों के सभी उत्तर / अधूरे
चकित हैं कैसे जलाशय /  जल रहित हैं
पांडवों के हित विवादों में / घिरे हैं
द्रोपदी का आचरण करता /  भ्रमित है 
                    (मुँह चिढ़ाने लग गयी रात) 

कुरु-कुल में कितने कौरव हैं
जो-जो वंशज कहे जा सकें
और पांडवों के विवाह में
जाकर मंगल गा सकें
सत्यवती के वंशधरों पर
चिपका हुआ अमिट संशय है 
                    (संबंधों के दृश्य-पटल पर) 

डर है, मद में जला न दें वे / लंका छोड़, अयोध्या सगरी 
                                                            (भरी हुई गागर संयत है) 

कूटनीतिक सूत्र भी। चाणक्य के . . . नीति के उपदेश तब / किसने कहे 
                                                                    (जब विकट संकेत घर के) 

नव-सृजन को लेकर कवि-मन की एक बानगी:

हमने भाषा के बीहड़ में / खोजी हैं / उन्मुक्त हवाएँ  . . .
लय से चली / प्रलय तक आयी
कहाँ पहुँच कर विलय हो गयी
उदगम पर तो / है विमर्श, पर
नदी सृजन की कहाँ खो गयी . . . 
विकृत और प्रदूषित होती / भाषा के संवाद बचायें! 
                    (हमने भाषा के बीहड़ में) 

‘प्यास की पगडंडियों पर’ संग्रह में आपको तत्सम और देशज शब्दों के साथ-साथ विदेशी शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिल जाता है:

पन्नियाँ, बेतहाशा, ज़िन्दगी, पच्छिम, अरगनी, वायदों, ठेलकर, पालागन, चदरिया, रजधानी, बदन, शोहदे फब्ती कसते, औलिया, क़वायद, रोशनाई, स्मार्ट, पेंसिल, स्लेट, व्हीलचेयर, इजलास आदि।

मूलतः उत्तर प्रदेश के जनपद गाजियाबाद के पिलखुआ में जन्मे वरिष्ठ नवगीतकार जगदीश पंकज के इस नवगीत संग्रह से पूर्व ‘सुनो मुझे भी', 'निषिद्धों की गली का नागरिक', 'समय है सम्भावना का', 'आग में डूबा कथानक', 'मूक संवाद के स्वर' एवं 'अवशेषों की विस्मृत गाथा' प्रकाशित हो चुके हैं। आपको कई रचनाओं के लिये अनेकों बार पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। अंत में इस नवगीत संग्रह के लिए मेरी तरफ़ से नवगीतकार जगदीश पंकज को हार्दिक बधाई और भविष्य में पाठकों के लिए आने वाले (द्रोह असहमत इच्छाओं का) सहित अन्य सभी नवगीत। काव्य संग्रहों के लिये हार्दिक शुभकामनायें। 

समीक्षक:
बृजेश सिंह
108-A, शंकर पूरी, गाज़ियाबाद-201009
मोब: 981062856

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