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राजस्थानी साहित्य में झलकता देश प्रेम

भारतीय संस्कृति में राजस्थान का नाम अपनी एक अलग पहचान रखता है। यहाँ की वीर -  भावना जग प्रसिद्ध है। राजस्थान के लिए ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ का उच्चारण किया जाता है। देश प्रेम की उत्कृष्ट भावना यहाँ के कण कण में मौजूद है। इस मरूधरा के खेतों में फसलों के साथ साथ अजेय तलवारों की फसलें भी उपजी है। यहाँ के नर नारी सदैव ‘जल मर जावे नारियाँ, नर मर जावे कट्ट’ की कहावत को चरितार्थ करते आए हैं। राजस्थान में कई छोटे-बड़े रजवाड़े थे, जो आपस में बैर का भाव रखते थे। ऐस वातावरण में अँग्रजों को  अपनी हुकूमत बनाने में  कोई परेशानी नहीं आई। उस वक्त यदि राजस्थान के सभी रजवाड़े एक होकर विदेशी ताकतों से लड़ते तो भारत का इतिहास कुछ ओर ही होता पर ज्यादातर राजा अपने अपने स्वार्थसिद्धी में लगे रहे । देश की आजादी को वे भुला बैठे थे और अँग्रेजों के साथ संधियॉ करके उन के गुलाम हो गए थे।

 उस समय राजस्थान की धरती पर बहुत से ऐसे राजा भी हुए जिन्होंने उनकी सत्ता का विरोध किया। इनमें भरतपुर, जोधपुर, कोटा के राजा  प्रमुख हैं।  प्रसिद्ध है कि भरतपुर के राजा  ने अँग्रेजों को चुनौती दी और उन्हें दाँतों चने चबवा दिए। भरतपुर के राजा का यश डंका चारों ओर बज उठा । लोक गीतों में उसका बखान कुछ इस तरह हुआ-

"आछौ गोरा हट जा
राज भरतपुर रो  -गोरा हट जा
भरतपुर गढ बंको रे, किलो रे बंकौ
गेारा हट जा रे।"
 
 
अर्थात--हे गोरे अँग्रेजों अच्छा होगा तुम रास्ते से हट जाओ। यह भरतपुर का राज्य है यहाँ का राजा और किला दोनों बाँके है।

जोधपुर के कविराजा बाँकीदास भरतपुर के राजा का बखान कुछ इस प्रकार करते है-

“बाजियो भळो भरतपुर वाळो,
गाजे गजर धजर नभ गोम,
पहिला सिर साहब रो पडियो,
धड उभां नह दीधी भौम।"

अर्थात-- भरतपुर का राजा बादलों की तरह नभ में गरजना करने लगा । शत्रुओं से युद्ध करते हुए  उसका सिर पहले पृथ्वी पर गिरा , पर धड़ खड़ा रहा और उसने अपनी भूमि नहीं दी।

मानसिंह ने अँग्रेजी सत्ता के विरुद्ध भोंसले और होलकर की खुली मदद की जिसकी प्रशंसा के  कई पद्य राजस्थानी काव्य में मिलते हैं।-

 ‘‘देख  गरूड अंगरेज दळ, बणिया नृप ब्याल,
जठै मान जोधाहरो, भूप हुयौ चंद्र भाळ।”

अर्थात--अँग्रेज रूपी गरूड़ को देख कर सारे राजा सर्प की तरह हो गए वहीं राजा मानसिंह जहाँ था वह भूमि मस्तक के चन्द्रमा की तरह हो गई। 

मातृभूमि को शत्रुओं से बचाने के लिए अपने प्राणों की मुस्कुराते हुए बलि दे देने की परम्परा का दर्शन राजस्थानी लोक गीतों में  भी किया जा सकता है।

 पराधीनता को सबसे बड़ा अपमान मानने वाले यहाँ के बच्चे, बूढ़े, और जवानों को यह ताकीद की गई है कि यदि तुम देश को स्वतंत्र नहीं रख सकते तो इससे बड़ी शर्म की क्या बात होगी। शत्रु तुम्हारे देश को लुट कर ले जाए और तुम देखते रहो ऐसे राजा को जनमानस ने नहीं बख्शा है ऐसे राजा को तो चुड़ियाँ पहन लेनी चाहिए-

“दुस्मण देसां लुटकर, ले जावे परदेस।
राजन चुडल्यां पैरल्यो, धरौ जनानो भेस।”

कोटा-बूंदी के कविराज सूरजमल मीसण ने अपनी काव्य कृति ’ वीर सतसई’ में देश प्रेम की भावना को से इस तरह प्रस्तुत किया है-

“इळा न देणी आपणी , हालरिये हुलराय।
पूत सिखावे पालणे, मरण बड़ाई माय।।”

अर्थात-- माँ अपने पुत्र को पालने में झुलाती हुई यह सिखाती रहती है कि अपनी भूमि शत्रुओं को कभी नहीं देनी चाहिए। 

राजस्थान साहित्य तो जैसे अँग्रेजी सत्ता के विरूद्ध एक लड़ाई थी । जनमानस अपने गीतों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण तैयार कर रहा थे जिससे लोगों को समझाया जा सके कि पराधीनता से देश के लोगों की कितनी दुर्गति होती है। जिन वीरों ने दुश्मनों से लोहा लिया उन्हें सम्मान दिया गया।-

“क काळी  टोपी रे ,
बारली तोपां रा गोलां ,धुड़गडढ में लागे हा।
ढोल बाजे थाळी बाजे, भेळो बाजे बाँकियों।
अँग्रेजां ने तो मारनै, दरवाजे नाकियौ।
क जुझे आउवौ।।”

अँग्रेजो ने आजादी की लड़ाई लडने वाले जांबाजों को डाकू घोषित कर रखा था, लेकिन लोक उन की भावनाओं की कद्र करते थे । ऐसे ही पुरूशों में थे बलजी-भूरजी और डूंगजी-जवाहर जी। जो अँग्रेजो की छावनियाँ लूटते, तोप खानों पर धावा बोलते पर गरीबों के सहायक थे। एक बार अँग्रजों ने डूंगजी को धोखे से कैद कर लिया और आगरे के किले में रखा तो जवारजी और उनके सहयोगी उन्हें छुड़ा कर लाए और उन्होने नसीराबाद की फौजी छावनी लूट ली । डिंगल गीतों में इसका बखान कुछ इस तरह किया गया-

‘‘अरज करै छै फिरगांण री कांमणी, लुट मत छावनी भंवर लाडा।
भिडियों इम ज्वार लियाँ भड़ संग, इसौ फिस सण्यौं लह जंग।
दीधी खग झाट पराक्रम आण, घणा गढ छोड़ भाग्या फिरंगाण।”

इसी प्रकार की एक बानगी लोकगीत में देखिए-

 ‘मिनखा निठगी मोठ बाजरी, घोडा निठग्यौ घास।
कुणहिं जाटणा खेत खडैला, कुणहिं भरैला डाण।
अेक बार  लो लुट  छावनी, रै  मरदां में  नांव।
आपां तो लुटां उण ने, जग लुट्या जिण ने।
गरीब गुरबाँ लुटनो, राण्यां तणौ विचार।”

जब किसी राजा ने अपने ऐशो आराम की जिन्दगानी को अँग्रेजों की तपन से बचाने के लिए जनता से छुप कर अँग्रेजी हुकूमत से समझोता कर लिया तो ऐसे राजा को कुछ इस तरह धिक्कारा गया-

‘‘म्हारो राजा भाळौ, सांभर तो देबो अँग्रेज ने,
म्हारा टाबर भूखा, रोटी तो मांगे तीखे लूण री।।”

आजादी के बाद देशी रियासतों का एकीकार कर देश को मजबूत करने की बात उठी तो अँग्रेजों ने कुछ ऐसा जाल फैलाया कि भारत के टुकड़े टुकड़े हो जाएँ। सरदार वल्लभ भाई पटेल ऐसे समय सामने आए और देश को एक करने का बीडा अपने कंधों पर लिया। ऐसे पावन कार्य के लिए लोक मानस ने उन्हें अपने सर-आँखों पर बिठाया-

“ओ दबसी नहीं दबायो, जिण राजस्थान बणायौ।
पीथल तणै कटक में कडैक्यौ, गोरां रा पग दिया उखाड।”

राजस्थानी में ऐसे दोहे और गीत भी है जिनके विषय और भाव तो अलग अलग है कहीं अपने मान तो कहीं अपनी मर्यादा तो कह अपनी आन बान को किसी भी कीमत पर न खो देने की सीख है । कवियों ने राजस्थान के वीरों को यही पाठ पठाया है कि स्वाभिमान से मर मिटने से ही प्रसिद्धि होती है।-

“मरदां मरणों हक है उबरसी मल्लाह ।
सापुरसां रा जीवणां थेाड़ा ही भल्लाह।।”

कवि बाँकीदास ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा--

‘‘आयौ इंगरेज मुलक रे उपर, आहस लीधा  खैंचि उरा।
घणियाँ मरे न दीधी धरती, धणियाँ उभा गई धरा।।”

इस प्रकार राजस्थानी लेखनी से देश प्रेम की धारा वेग से प्रवाहित हुई है। कवियों ने अपनी ओजस्वी भाषा का प्रयोग कर देश के लोगों में देश प्रेम की भावना का एक नया जज्बा पैदा कर दिया था।

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