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राजस्थानी वात साहित्य : राजान राउतरो वात वणाव विशेष

16 वीं शताब्दी में विभिन्न रूपों में गद्य लेखन आरंभ हो चुका था। वात, ख्याल, विगत वंशावली, टीका, टप्पा, वचनिका,पट्टा, बही शिलालेख आदि के माध्यम से सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्य व्यापारों का सुंदर चित्रण हुआ।

समृद्धि की दृष्टि से राजस्थान का वात साहित्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण रहा। राजस्थानी में कहानी लिखने की परंपरा बहुत प्राचीन है अधिकतर विद्वानों ने वातों का विषय रईस और नवाबों आदि के अवकाश के क्षणों में मनोरंजन हेतु प्रेम एवं अतिरिक्त आकस्मिक घटनाओं से परिपूर्ण ही माना है।

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने राजस्थानी गद्य साहित्य के विषय में लिखा है कि ब्रजभाषा की भाँति ही राजस्थानी में ख्याल, वात और वार्ताओं का साहित्य थोड़ा बहुत बनता रहा मुग़ल दरबार में क़िस्सागोई नाम की एक विशेष प्रकार की कला का जन्म हो चुका था। मुग़ल काल के अंतिम दिनों में जो क़िस्सागोई या दास्तानगोई एक पेशे का रूप धारण कर चुकी थी। क़िस्सागोई लोग अवकाश के क्षणों में बादशाहों नवाबों और अन्य देशों का मनोरंजन किया करते थ॥ इन कहानियों का प्रधान विषय प्रेम हुआ करता था और इसके अतिरिक्त एवं आकस्मिक घटनाओं से वर्ण्य विषय को आकर्षित बनाने की चेष्टा भी होती थी। राजपूत दरबारों में भी थोड़ा बहुत अनुकरण होने लगा इसी कारण राजस्थानी भाषा में भी क़िस्सागोई का साहित्य बनता रहा। परंतु जिस प्रकार राजपूत क़लाम मुग़ल कला से प्रवाहित होकर भी भीतर से संपूर्ण रूप से भारतीय बनी रहे। उसी प्रकार यह आख्यान साहित्य भी संपूर्ण रूप से भारतीय ही बना रहा। (हिंदी साहित्य का इतिहास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी)

इस संबंध में एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि राजस्थानी वात साहित्य पर मुग़ल काल में प्रचलित क़िस्सागोई का असर भले ही पड़ा हो किंतु राजस्थानी में वात साहित्य संबंधी रचनाएँ मुग़लों के भारत आने से पहले ही निर्मित होती रहीं। अतः राजस्थानी की कहानी कहने और लिखने का विचार नितांत मौलिक है। 'वात' शब्द भी कहानी का उपयुक्त पर्याय नहीं है 'वात' शब्द में कहानी के अंतर्गत वर्णन की जाने वाली संपूर्ण रोचकता कहने वालों की दक्षता और सुनने वालों के जिज्ञासा पूर्ण आग्रह का एक मिश्रित भाव चिह्नित है।

राजस्थानी साहित्य इतना विस्तृत और भावपूर्ण है कि उसका पूर्ण वैज्ञानिक वर्गीकरण करना साधारण रूप में संभव नहीं है।

राजस्थानी साहित्य में मोटे तौर पर दो प्रकार की वातें मिलती हैं। एक तो वह वातें जिनका लिपिबद्ध स्वरूप बन गया है और जिन की भाषा शैली में स्थायी विशिष्टता प्रगट होती है दूसरे वर्ग के अंतर्गत वह वातें आती हैं जिनका कोई एक शैलीगत रूप लिपिबद्ध नहीं हो सका, लेकिन वह अभी तक लोगों की ज़बान पर ही हैं। इस दूसरे प्रकार की वातों को लोक कथाओं के नाम से पुकारा जाता है। 

वात साहित्य की विशेषताएँ 

घटना बाहुल्य राजस्थानी वातों की प्रमुख विशेषता है। इसमें पाठकों को मंत्रमुग्ध करने की अपूर्ण क्षमता है। बीच-बीच में जहाँ भी अवसर प्राप्त होता है वहीं प्रकृति की अनुपम छटा, नगर की विशालता एवं सम्पन्नता, दुर्ग की अभेद्यता, युद्ध की भयंकरता, वीरों का रणकौशल, हाथी-घोड़ों के लक्षण, अस्त्र-शस्त्रों की विशेषता, नायिका का सौंदर्य और उपकरणों का बहुत ही सुन्दर वर्णन हुआ है। ये वर्णन सजीव एवं मार्मिक हैं। वे पाठकों के कल्पना पटल पर सजीव चित्र उपस्थित कर देते हैं तथा कहने वाले या लिखने वालों की दृष्टि इतनी पैनी हो गई है कि वह अत्यंत सूक्ष्म तत्त्वों का निर्देश करना भी नहीं भूलती। उदाहरण के रूप में जहाँ मृगया का वर्णन हो रहा है वहाँ एक-एक क्षण के परिवर्तन के सुंदर चित्र हैं जो किसी सरस विषय को और भी मनोरंजनक बना देते हैं। कुछ रचनाएँ तो ऐसी हैं जिनमें शताब्दियों का इतिवृत्त ठूँस दिया गया है एवं उनका लिपिबद्ध रूप सैकड़ों पृष्ठों में जाकर समाप्त होता है। किंतु कुछ रचनाओं में थोड़े से समय में घटित होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं का भी अत्यंत विशद वर्णन है। 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक राजस्थानी का गद्य साहित्य अधिक विकसित हो चुका था। सुसंगठित भाषा में उपमान, दृष्टांतों और अतिशयोक्ति का अत्यंत सुंदर प्रयोग होने लगा था। रूढ़ उपमानों के अतिरिक्त अन्य कितने नए मौलिक उपमानों का भी प्रयोग हुआ। पद्य के समान गद्य में भी नख-शिख वर्णन राजस्थानी वातों में प्रचुरता में है। 

राजान राउतरो वात वणाव

राजान राउतरो वात वणाव इसी प्रकार की एक राजस्थानी वात है। इसमें विभिन्न अवसर उपयोगी वर्णनों का विस्तृत संग्रह है। इस ग्रंथ को गद्य की संज्ञा देना उचित प्रतीत होता है। इसकी घटना वर्णन प्रधान है। इसकी कथा इस प्रकार हैं—

आबू पर्वत के महाराजा राजेश्वर की पाटवी रानी महामाया का जेष्ठ पुत्र राजकुमार राजान अपनी अल्प आयु में ही काव्य कला, संगीत कला, वाक्‌पटुता, युद्ध कला एवं काम शास्त्र के ज्ञान आदि समस्त गुणों से परिपूर्ण होकर अत्यंत लोकप्रिय हो गया। उसके व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर चार राजघरानों से अपनी-अपनी कन्याओं के विवाह के प्रस्ताव आए जो सभी स्वीकार किए गए और अजमेर पुष्कर के पास एक ही विवाह मंडप में चारों से विवाह करके भरपूर उपहार आदि प्राप्त करके राजान का हर्षोल्लास पूर्वक पुनः शुभआगमन एवं गृह प्रवेश हुआ। तद्‌नतर राजान की वैभवशाली जीवन की सूचना अपने गुप्त सूत्रों द्वारा प्राप्त कर दिल्ली के बादशाह मुस्तफ़ाखान ने उन पर आक्रमण कर दिया। राजा इसमें विजयी होकर घर आया और कुछ दिनों बाद अपने साथियों के साथ आखेट के लिए गया एवं संध्या काल तक पुनः लौटकर अपनी सुंदर पत्नियों को वियोग से मुक्त किया।

कथावस्तु के इस छोटे से आधार पर वर्णनों का ताना-बाना इस तरह बुना गया है कि ना तो वर्णन कथाक्रम को छोड़ता है, न ही पूर्णतया उस पर निर्भर है। यह वर्णन अपना पूर्ण सौंदर्य लिए हुए तथा मूल घटना के साथ सम्बंध स्थापित किए हुए हैं। यह ललित गद्य अपनी कला, भाव सौन्दर्य, लालित्य व लावण्य से पाठकों का मन मोहित करता हुआ उन्हें अपने प्रभाव में बहाता, साहित्य से सरोबार करता हुआ आत्मानंद या ब्रह्मानंद के समान काव्यानंद की अनुभूति कराता है।

यह वर्णनात्मक निबंध शैली में लिखा गया है जिसमें राजाओं का वर्णन करते समय कौन-कौन से प्रमुख स्थलों पर किस प्रकार प्रकाश डालना चाहिए बताया गया है। यह चार अध्यायों में यह पूर्ण हुआ है, प्रारंभ में स्तुति है। महादेवन का हिमालय पर्वत और आबू के वर्णन उपरांत राजराजेश्वर पटरानी तथा राजकुमार का विरद गाया गया है।

डॉ. शिव स्वरूप शर्मा 'अचल' के अनुसार इस ग्रंथ के वर्णनात्मक गद्य के उदाहरण इस प्रकार हैं:

प्रथम अध्याय—

1. राजपथ: पाँच कोट, बाग़, बावड़ी, कुआँ, सरवर, बड़, पीपल आदि का वर्णन। 

2. गड़कोट: परकोट के कँगूरे, आकाश को निकल जाने के लिए मानो दाँत, इनकी ऊँचाई समीपवर्ती खाई की गहराई, गढ़ के भीतर कुआँ सरवर, धन, तेल, नमक, ईंधन, अमल आदि। 

3. नगर-देवालय: कथा कीर्तन, नाटक, धूप, दीप, आरती, केसर, चंदन, अगर, झालर, झंकार।
धर्मशाला दानशाला योगेश्वर त्रिकुटी साधक एवं धूम्रपान करने वाले, दिगंबर, श्वेतांबर, निरंजनी कनफटे जोगी, सन्यासी, अवधूत फकीर, निवासी लखपति, करोड़पति सौदागर, 36 उत्तर जातियाँ।
बाज़ार, सोना, रूपा, जवाहर, कपड़ा– रेशम परकुल, पसम शर्राफ, बाजाव, जोहरी दलाल, छैल नायिका, वेश्या आदि। 

4. राजकुमार के संबंध के लिए विभिन्न स्थानों से आए हुए नारियल का वर्णन। 

5. विवाह की तैयारियाँ: बारात गमन हाथी घोड़े बैल पैदल, आदि कलश बाँधना, आला नीला बाँस, केलि खंभ, चवरी, पाणी ग्रहण, संस्कार मंगलाचार, 36 विधि– 1. तंत्री 2. वीणा 3. किन्नरी 4. तंबूरा 5. निशान 6. ढोल 7. दमामा 8. भेरी 9. मुंगली 10. नफरी 11. सदन भेदी 12. झांझ 13. मंजीरा 14. मादल 15. श्री मंडल 16. डफ 17. उंडक 18. रंग तरंग 19. मूलचंग 20. तरल 21. कंसार 22. तंबूर 23. मुरली 24. रिणनूर ‌25. इखि 26. राय 27. ख्वाज 28. रावण हतो 29. पूंजी 30. अगलियो 31. झालर 32. पिनाक 33. वरधु 34. तारंगी 35. करनाल 36. गिड़गिड़ी। 

6. भोज: दो प्रकार के अन्न अ -बायो ब -अड़क
तीन प्रकार के मांस अ -जल जीव ब -थल जीव स-आकाश जीव।
पाँच प्रकार के साग-अ-तरकारी ब-कंदमूल स-डाल कोंपल द- पान पत्र य -फल फूल।
गोरस - अ-दूध ब - दही स - अन्य प्रकार।
मिठाई, नमक, तेल, हिंग, वेसवार, चरकाई।

7. दहेज़– हाथी, घोड़ा, सुखासन, रथ पायक, जवाहर, हीरा, मोती, माणिक, सोना, रूपा, दास दासी। 

8. बारात लौटना: भाँति भाँति के उत्सव।

9. रानियों के सोलह शृंगार: बारह आभूषण, राजाओं के सोलह शृंगार और आभूषण। 

द्वितीय अध्याय—

1. ऋतु वर्णन: षट्‌ ऋतु वर्णन
2. प्रकृति वर्णन
3. विवाह के उपरान्त रंगरेलियाँ: ऋतु विहार, ऋतु चर्चा, ऋतु के अनुसार आचार व्यवहार।
4. ऋतुओं के अन्तर्गत आए हुए पर्व नवदुर्गा, दशहरा, देवों उत्थान, एकादशी, होली, दिवाली। 

तृतीय अध्याय—

तीसरे अध्याय में युद्ध और आखेट का वर्णन है।

1. राजकुमार के 32 लक्षण बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं– 1.सत 2 .शील 3. गुण 4. रूप 5. विद्या 6. तप 7. उदाराहारी 8. अल्पाहारी 9. तेज 10. धनकर 11. दौलतमंद 12. सकल नायक 13. दयालु 14. विचारशील 15. दाता 16. बुद्धिमानी 17. प्रमाणिक 18. यश 19. उद्यम 20. लाज 21. धीरज 22. राज सम्मान 23. सूर 24. साहसी 25. बलवान 26. भोगी 27. योगी 28. भुजायन 29. भाग्यवान 30. चतुर 31. ज्ञानी 32. देव भक्त। 

2. मुग़ल सम्राट से उनका युद्ध, मुग़ल सेना का सजना, राजपूत सेना का सजना। 36 प्रकार के आयुध– 1. सर सोगणी 2. छुरी 3. कुंत 4. सांग 5. गेडिहल 6. मोगर 7. गोली 8. गोपाण 9. शंख 10. गुरज 11. मुसल 13. धण 14. प्रासी 15. चक्र 16. खड्ग 17. वाबक 18. फरसा 19. कूह 20. कबाण 21. बंदूक 22. ढाल 23. कटार 24. सेल्ह 25. खपटसो 26. त्रिशूल 27. सांडों 28. घको 29. वन्तसहडी, 30. भूकंत 31. चटक 32. दंडामुध 33. चहुलीसुलो 34. वली 35. कंडीलगण 36. तोमरा। 

3. इसके अतिरिक्त युद्ध की तैयारी, युद्ध का आरंभ, युद्ध वाद्यों का बजना, दोनों ओर से का प्रयोग, घमासान युद्ध, रौद्र रस का प्रकोप, मतवाले सामंतों के वार, गज एवं अश्कों का चिंघाड़ना, घायलों का कराहना, राजपूतों की विजय और विजय की उत्सव का विस्तृत वर्णन है। 

4. राजकुमार का आखेट वर्णन: आखेट की तैयारी, साथ में सेना विविध आयुध, गज, उनकी सजावट आदि चातुर्मास के विश्राम स्थल का वर्णन, साथ में पिंजर पक्षी, अनेक शिकारी अन्य आखेट में सहयोगी पशु पक्षियों का वर्णन।

चतुर्थ अध्याय—

चतुर्थ अध्याय में आखेट के उपरान्त विश्राम का वर्णन है। विविध आयुधों का खेला जाना, भोजन बनाना, दोपहर का अमल, अमल उपरान्त अवस्था का चित्रण, दोपहर समाप्ति, लौटने की तैयारी, लौटना, प्रतीक्षा में प्रासाद के गवाक्षों से देखती हुई रमणियों के चित्र, महल में प्रवेश रंगमहल के प्रेमालाप आदि। 

डॉ. शिवस्वरूप शर्मा 'अचल' द्वारा किया गया है यह वर्णन कथात्मक न होकर वर्णात्मक है। यह एक ऐसा काव्य ग्रंथ है जो प्राचीन राजस्थानी गद्य का प्रतिनिधित्व करता है। इस ग्रंथ की दृष्टि से देखें तो प्राचीन राजस्थानी गद्य काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है। 

1. काव्य परंपरा का रूप— जिस प्रकार प्रबंध काव्य के प्रारंभ में कवि मंगलाचार अवश्य किया करते थे उसी प्रकार गद्यकारों ने भी इसी परंपरा को अपनाया। 'राजान राउतरो वात वणाव' में रचनाकार मंगला चार के रूप में सर्वप्रथम देवों के देव ईश्वर को प्रणाम कर पुनः माँ सरस्वती, गणेश जी एवं सद्‌गुरु का अभिवादन करते हुए कहते हैं– 

"परमेसर‌ प्रणमूं प्रथमिं देवों सिरहर देव।
सारदा गुण पति समरि संत गुरचि करि सेव॥" 

एक काव्य परंपरा रही है कि गद्य के आरंभ में ही विषय वस्तु का संकेत दे दिया जाता है। प्रस्तुत गद्य में भी राजान राजकुमार का संकेत प्रारंभ में ही दे दिया गया है। 

2. वर्णन की प्रधानता— इस गद्य में कथा से अधिक वर्णन की प्रधानता है। लेखक को जहाँ-जहाँ भी अवसर प्राप्त हुआ है वहीं दुर्ग की अभेद्यता, नगर की विशालता, प्रकृति की अनुपम छटा, युद्ध की भयंकरता, वीरों का रण कौशल, हाथी घोड़ों के लक्षण, अस्त्र-शस्त्रों की विशेषताएँ, शृंगारिक उपकरणों आदि का बड़ा सुंदर वर्णन किया है। यह वर्णन केवल विवरण मात्र ही नहीं है अपितु काव्य कला से परिपूर्ण हृदय टीके उतरने वाला वर्णन है। ऋतु वर्णन तो इस रचना की आत्मा है। छह ऋतु का अत्यंत सजीव एवं मनमोहक चित्रण हुआ है। प्रकृति वर्णन में भाषा एवं अनुप्रास की छटा दृष्टव्य है। शरद ऋतु का वर्णन प्रस्तुत है– 

"सरोवरां रा जल निरमल हुआ छै कमल, पोती फूलि रहिया छै। सरग रा देवां ने पितरा नूं मात लोक प्यारो लागे छै। कामधेनु गायां छै। सूं धरती री पाखी औषधिया चरे छै। दुधांरा सवाद अमरित सरिखा लागे छै।" 

'राजन राउतरो वात वणाव ', भाषा की अलंकारिकता, शैली की चित्रोपमता, नाद सौंदर्य आदि कारणों से एक उत्कृष्ट कोटि के काव्य का रसास्वादन कराने में सक्षम है। काव्य कला के संपूर्ण गुणों से युक्त तथा कला पक्ष और भाव पक्ष दोनों दृष्टि से यह ग्रंथ काव्यमयी है।

काव्य के प्रमुख अलंकारों का समावेश इसमें प्रचुर मात्रा में हुआ है। नगर नायिका का वर्णन में अनुप्रास की छटा देखी जा सकती है– 

"पायल रे ठमके सूं, घूघंर रे घमके सूं, बिछियारे ये चमके सूं रमझोल करती अगूंठा मोड़ती नखरा करतीं बाजारि चाली जाय छै।" 

ऋतु वर्णन, युद्ध वर्णन में उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक आदि का प्रयोग हुआ है उत्प्रेक्षा के तो एक से बढ़कर एक उदाहरण देखे जा सकते हैं– 

"बगतरां रा तवा फोड़ फोड‌‌ पूठी परा अणिआला अणि नीसरे छै सु जाणां धीवर पूठे जाल माहें मछा मुंह काठी आ छै।" 

साहित्य के सभी रसों का परिपाक इसमें हुआ है यथा शृंगार, भयानक, रोद्र, विभत्स, हास्य रस आदि। शृंगार इस ग्रंथ का मुख्य रस कहा जा सकता है। विप्रलभ शृंगार का वर्णन यहाँ नहीं है।
समग्र रूप से कहा जा सकता है कि यह कृति राजस्थानी साहित्य की अमूल्य रचना हैं। 

डॉ. वीणा छंगाणी
B 207, व्यास अपार्टमेंट, कुम्भा मार्ग
प्रताप नगर, 
जयपुर 302033
Mob 9414939142

अधिष्ठाता 
मनविकी एवम् कला विभाग
अपेक्स विश्वविद्यालय जयपुर 
जयपुर 302020

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