सीख ले धूप की तल्खियाँ झेलना
काव्य साहित्य | कविता दिलबाग विर्क15 Mar 2015
सीख ले धूप की तल्खियाँ झेलना
उम्र भर कब रहा साथ साया घना।
बन बवंडर गई देखते – देखते
आग से तेज़ है बात का फैलना।
हाँ कही जब कभी, जाल खुद बुन लिया
दाद देना उसे, कर सका जो मना।
हार हिस्सा रहेगा सदा खेल का
जीत की चाह रखकर भले खेलना।
तंग है सोच, दिखती नहीं खूबियाँ
आदतन वो करे सिर्फ आलोचना।
देखने का तरीका बदल तो सही
ख़ूबसूरत दिखेगा जहां, देखना।
तोड़ दो, अब ज़रूरत नहीं जाम की
बिन पिए आ गया 'विर्क' ग़म ठेलना।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
ग़ज़ल
कविता
लघुकथा
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं