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सौन्दर्य की मर्यादा

एक गौर वर्ण दुबली-पतली,
मुस्कान मधुर झलकी- झलकी,
ईंटों का बोझ लिये सिर पर,
चलती है गति धीमी-धीमी,

 

अधरों की लाली सूखी है,
फिर भी मुस्कान सरीखी है,
नजरें नत हैं फिर भी चंचल,
आँखों में धूरि भरी सी है,

 

कन्धे आगे को झुके हुये,
जूड़ा बालों में दिये हुये,
कटि क्षीण और कुछ झुकी हुई,
है कर्मशील बिन थके हुये,

 

बिन तल्ली के पाँव,
देखते नहीं धूप और छाँव,
न देखें कंकड़ पत्थर,
चलें वह जीवन पथ पर,

 

मार्ग ’महात्मा गाँधी’ पर,
’सूर-सदन’ के दरवाजे पर,
प्रेम की नगरी ’ताज’,
तड़पती बीच डगर पर,

 

शीत से सिमट गया तन गौर,
त्वचा पर बल रेखा हैं और,
बदन पर फटी-पुरानी सौर,
न कोई कपड़ा है कुछ और,

 

शीत लगे ठिठुरी-ठिठुरी,
मन से है कुछ उलझी-उलझी,
पर, कोप करे तो करे किनपे,
खुद ही मन में उखड़ी-उखड़ी

,

देखा जब सौन्दर्य प्रकृति का,
दर्द उठा फिर बड़ा गजब का,
सोचा क्यों सौन्दर्य भटकता ?
क्या इसमें है दोष प्रकृति का ?

दोष प्रकृति का नहीं, किन्तु,
रहे सौन्दर्य, बँधा अपनी मर्यादा,
मर्यादा की नाव अगर हिचकोले लेती,
कैसे सब सम्मान जगत का अपने ऊपर लेती ?

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