वो उतना ही पढ़ना जानती थी?
काव्य साहित्य | कविता मंजुल सिंह15 May 2021 (अंक: 181, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
वो उतना ही पढ़ना जानती थी?
जितना अपना नाम लिख सके
स्कूल उसको मज़दूरों के काम
करने की जगह लगती थी!
जहाँ वे माचिस की डिब्बियों
की तरह बनाते थे कमरे,
तीलियों से उतनी ही बड़ी खिड़कियाँ
जितनी जहाँ से कोई
ज़रूरत से ज़्यादा साँस न ले सके!
पता नहीं क्यों?
एक ख़ाली जगह और छोड़ी गयी थी!
जिसका कोई उद्देश्य नहीं,
इसलिए उसका उपयोग
हम अंदर बहार जाने
के लिए कर लेते हैं,
वो माचिस की डिब्बियों के
ऊपर और डिब्बिया नहीं बनाते
क्योंकि उन्हें लगता था
कही वे सूरज तक न पहुँच जायें?
इसी लिए नहीं बनाते उन डिब्बियों
के सहारे सीढ़ियाँ,
लेकिन नज़र से बचने के लिए
छोटा टीका ही काफ़ी होता है?
फिर भी,
दीवारों पर पोता जाता था
काला आयत
जिस पर अलग-अलग बौने
लकड़ी को काटने की जगह
समय को काटने के लिए
सफ़ेदी पोतते थे
और उतना ही पढ़ाते रहे
जितना वो अपना नाम लिख सकें?
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