आम आदमी
काव्य साहित्य | कविता विमल शुक्ला 'विमलेश'16 Jan 2018
उठता सुबह, जुटता
बनाने को सफलतम एक दिन
गिन गिन सँजोने को सुकृत
के बीज जीवन सत्व सा,
आम आदमी॥
जागा, हुए दो पल
वो आँखें खोल, पहले मोल
करता शांति, निज विश्रांति का
और उठ खड़ा होता
अडिग तटबंध सा,
आम आदमी॥
निकलेगा, उतना ढूँढ़ने
जो तोड़ने के योग्य हो
अप्रबंध्य और अड़ियल
क्षुधा के बंध को,
आम आदमी॥
पाता विजय है व्योम पर
जब आवश्यकता न्यूनतम
वह सिद्ध कर लेता
पटक देता है ज्यों भवभय को
अविरत, अमर सा,
आम आदमी॥
तंग बिस्तर तंग घर
है चंद संसाधन मगर
वह रोज़ करता खोज
एक संतुष्ट जीवन,
तुष्ट मन की सिंधु सा,
आम आदमी॥
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