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आम और ख़ास

जिसे देखिये कुछ 
साबित करने में लगा है
कोई देर रात तक तो कोई 
अलसुबह से जगा है,
यूँ भी नहीं कि बात ये बुरी है
सच पूछिए तो यही 
प्रगति की धुरी है


पर यदि कुछ बुरा है तो ये 
हर पल का दबाव और तनाव
और बुरा है इस अँधी दौड़ में -
खो देना सहज भाव


जाने ये कैसा समाज हमने रचा है
जिसके केंद्र में बस व्यक्ति पूजा है
ये कैसी  ’वीआईपी’ संस्कृति है, 
ये कैसी सेलिब्रिटी वंदना है,
जहाँ बड़ा ही कष्टप्रद 
आम और ना कुछ होना है


तो क्या अचरज यदि हर आम. . .  
ख़ास बनने को लालायित है,
और हर ख़ास अपनी ही 
गढ़ी छवि से प्रतिपल भयभीत है,
एक कुंठा और
 विषाद में जी रहा है
तो दूजा रहता भय और 
असुरक्षा से घिरा है


इस रस्साकशी में 
सरल जीवन का 
सुख ही खो गया है
और हर कोई 
महत्वाकांक्षा के हाथों की 
कठपुतली हो गया है
बिना ये जाने कि. . .
वस्तुतः न कोई 
आम है न कोई  ख़ास है
हर प्राणी नश्वर है 
हर वस्तु का होना ह्रास है


कुछ महान रचने की 
कोशिश ही बचकानी है
हर सृजन अंततः 
पानी पर लिखी कहानी है


तो जो रोज़मर्रा के 
साधारण जीवन को
निष्कपट प्रेम एवं 
शांति से जीता है
वही सतत बहते 
जीवन के झरने से, 
आनद का अमृत जल पीता है!

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