आत्मपीड़न
कथा साहित्य | लघुकथा आलोक कुमार सातपुते25 Nov 2009
ट्रेन की जनरल बोग़ी में काफ़ी भीड़ थी....। वह अपनी पत्नी और पाँच वर्ष के बच्चे के साथ किसी तरह अन्दर पहुँचा। अन्दर एक सीट पर एक व्यक्ति पसरा हुआ था। उसने बड़ी ही नम्रता से अपनी पत्नी और बच्चे का हवाला देते हुए उस व्यक्ति से थोड़ी सी जगह देने का अनुरोध किया। इस पर वह बिगड़ने लगा। ठीक है भैय्या तुम्हीं लेटे रहो कहते हुए उसने अपने बच्चे को वहीं उस व्यक्ति के पैताने खड़ा किया और पत्नी-पत्नी दोनों दबकर एक ओर खड़े हो गये।
थोड़ी देर बाद उसकी पत्नी धीरे-धीरे बड़बड़ाते हुए अपने पति को लताड़ने लगी इस पर उसने कहा शांत तो रहो, यह लेटा हुआ व्यक्ति ख़ुद हमें जगह देगा।
कुछ देर बाद उस लेटे हुए व्यक्ति के पैर बच्चे से टकराने लगे। पहले तो उसने अपने पैरों को समेटा, और फिर धीरे से बच्चे केा बैठ जाने को कहा। बच्चा सीट पर बैठ गया। कुछ और समय बीतने पर वह लेटा हुआ व्यक्ति परेशान होकर बेचैनी से करवटें बदलने लगा। आख़िर में उससे रहा नहीं गया और वह भाईसाहब आप लोग यहाँ आराम से बैठ जाएँ, कहते हुए वह अपनी सीट पर उठ बैठा।
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