अब ज़रूरी हो गया है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शिल्पा तिवारी1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
उलझनों की कश्मकश में,
अब उम्मीदों की ढाल बनना
ज़रूरी हो गया है।
नदियों से सीखो
समुंदर को ढूँढ़ लेने का हुनर,
कि . . . अब मंज़िल को पाना
ज़रूरी हो गया है।
फिर से चलो . . .
कि अब चलना
ज़रूरी हो गया है,
दुनिया की भीड़ से
अब अलग होना
ज़रूरी हो गया है।
कोई तो जगह होगी,
जहाँ से न जाना होगा,
इस परिंदे का कहीं तो
आशियाना होगा।
कब तलक ख़ुद में
सिमटे रहोगे तुम,
दुनिया से मिलो . . .
कि अब मिलना
ज़रूरी हो गया है।
वक़्त गुज़ार लिया
काफ़ी अँधेरों में,
रोशनी में अब तो आना होगा।
उदासी का दामन छोड़ के,
फूल से खिलो . . .
कि अब खिलना
ज़रूरी हो गया है।
ना जाने कितने ही
ख्वाब हैं तुम्हारे,
नींद से जागो . . .
कि अब जागना
ज़रूरी हो गया है।
कई चेहरों के बीच ही
खो गए तुम,
ख़ुद को तलाशना अब
ज़रूरी हो गया है।
यूँ ख़ामोशी से सज़ा न दो,
अपने ख़्यालों को,
ख़ुद को तराशना अब
ज़रूरी हो गया है।
ख़ुद को ना खोने दो
भीड़ में कहीं,
उठो . . . कि अब
वक़्त साबित करने का
ख़ुद को हो गया है।
इन चार दीवारों में
घुट घुट के मरना
ज़िंदगी नहीं,
परिंदे से उड़ो . . .
कि अब उड़ना
ज़रूरी हो गया है।
डॉ शिल्पा तिवारी
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