अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अच्छी औरत

 

शादी, 
एक अटूट बन्धन है, 
पवित्र रिश्ता है, 
पति पत्नी का। 
जिस बन्धन मेंं, 
स्त्री ख़ुशी-ख़ुशी बँधती है, 
सारे रिश्ते-नाते
व फ़र्ज़ निभाती है। 
 
सुंदर कपड़ों 
व क़ीमती आभूषणों से लदी, 
नए रूप-रंग मेंं 
सजती-सँवरती है। 
पति के चरणों में स्वर्ग, 
घरवालों मेंं रिश्ते, 
हर जगह अपनापन
और आशीर्वाद ढूँढ़ लेती है। 
 
खनकती चूड़ियाँ व कंगन, 
छनकती पायल, 
सर पे घूँघट, 
माथे पर सिंदूर, 
होंठों पर लाली, 
और, कानों मेंं बाली। 
ओढ़े हुए है चादर फ़र्ज़ 
और ज़िम्मेदारी की। 
 
रखना है ध्यान पति का, 
करनी है हर ज़रूरत पूरी, 
बनाना भी है परिवार, 
और सबकी इच्छा पूरी
निपुण भी होना है पाक-कला, 
गृह-सज्जा इत्यादि मेंं, 
क्योंकि, 
अच्छी औरतें यही तो करती हैं! 
 
बच्चों का पालन-पोषण, 
देखभाल व साज-सँभाल, 
घर का राशन, हिसाब-किताब, 
करती रहती गुणा-भाग। 
कभी ख़त्म न होते 
ताउम्र चलती है ये अनंत भागीदारी, 
यही मानदंड तो तय करते हैं, 
कितनी अच्छी औरत है बेचारी। 
 
इसी उधेड़-बुन मेंं फँस कर, 
दे रही ख़ुद की क़ुर्बानी, 
प्रेम बन्धन मेंं बँधकर, 
करती सबकी गुलामी। 
सोने के पिंजरे मेंं वो क़ैद, 
होती आत्म-सम्मान की नीलामी, 
घर के कामों मेंं ऐसी उलझी, 
हो जाती अस्तित्व की गुमनामी। 
 
भँवर मेंं फँसी हुई औरत की, 
तरक़्क़ी रोकते कई घटक
कि चूड़ियाँ लगे हथकड़ियाँ
बेड़ी लगें पायल। 
बिछिया, अँगूठी तय करते
हाथ-पैरों की गतिविधियाँ, 
तो मंगलसूत्र व सिंदूर जताता है, 
पति का स्वामित्व। 
 
ब्लाउज़ तय करता है, 
साँस लेने की सीमा भी
तो साड़ी तय करती है, 
ज़्यादा लम्बे न हों क़दम। 
पल्ला दर्शाता है, 
चरित्र, चाल चलन और मर्यादा, 
घूँघट तय करता है, 
नज़र और नज़रिया। 
 
इसी उहापोह मेंं 
फँसी रह जाती है, 
चाहर दीवारी मेंं बंद रहकर, 
पुरातन हो जाती है। 
दुनिया के साथ 
क़दम ताल नहीं मिला पाती है, 
इस प्रकार वो, जहाँ थी
वहीं खड़ी रह जाती है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं