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आधुनिकतावाद और नारी

सृष्टि का आधार स्तम्भ मानी जाने वाली नारी, जो पुरातन काल से समाज में करुणा, प्रेम, त्याग से समाहित ऐसा जीव रूप मानी गयी है। जिनका मर्यादा के सीमित दायरे में जीवन जीना उनका स्वरूप निर्धारित किया गया। किन्तु समय बदला, समाज बदला और परिस्थितियाँ बदलीं और धीरे धीरे स्त्री का स्वरूप भी बदलने लगा। पुरातन सभ्यता और संस्कृति की धरती भारत में स्त्री स्वरूप को श्रेष्ठ बताया गया है। भले ही भारत पुरुष प्रधान देश है फिर भी स्त्रियों को श्रेष्ठ बताने का गौरव यहाँ हर ग्रन्थ हर पुराण में स्थित है। 

जहाँ तक विदित है ऐसा कहा जाता है कि पुराने समय में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी समाज उनका शोषण करता था उन्हें समाज में हर सुविधाओं से वंचित रखा जाता था, जैसे शिक्षा का अधिकार, पुरुषों के समान कोई कार्य न करने का अधिकार इत्यादि। किन्तु अगर हम ग़ौर करें तो हमारी पुरातन विदुषी स्त्रियों ने भी उसी दौर में अपना सार्थक स्वरूप समाज में स्थापित किया था। और अगर गूढ़ विवेचन करें तो उस काल में भी भ्रष्ट और पतित स्त्रियाँ रही होंगी किन्तु उनका उल्लेख करना भारतीय सभ्यता और संस्कृति में कहीं भी औपचारिक नहीं था इसलिए उनका उल्लेख कहीं भी दृष्टिगत नहीं होता। अगर विचार करें तो किसी भी तथ्य के दो पहलू होते हैं; पहला सार्थक और दूसरा निरर्थक। मेरे विचार में देखा जाय तो कहीं भी स्त्रियों का शोषण होता नहीं दिखा क्योंकि उस समय स्त्रियों के प्रति जो भी स्थितियाँ उत्पन्न हुईं उसका कोई न कोई कारण था। यदि हम जाति व्यवस्था के स्वरूप तथ्य को ले लें तो जाति धर्म के अनुसार ही समाज का निर्माण हुआ।

उच्च वर्ग और निम्न वर्ग इस तथ्य पर विवेचन करने पर देखें तो यदि कोई उच्च वर्ग का है तो उसे समाज के सभी सुख समान रूप से भोगने का अवसर मिला चाहे वो उच्च वर्गीय स्त्री हो या पुरुष। जैसे शास्त्र ज्ञान, घुड़सवारी, आखेट, शासन यदि कोई राजा है तो उसके पुत्र-पुत्री सभी को समान ही सुख सम्मान मिला। वहीं यदि हम धर्म व्यवस्था में किसी शूद्र या निम्न जाति के स्त्री पुरुष के जीवन स्वरूप को देखें तो वहाँ भी उन्हें समान परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। यदि किसी शूद्र को चमड़े का कार्य दिया गया तो उस कार्य को उसका पूरा परिवार समान रूप से करेगा। 

सती प्रथा, पर्दा प्रथा, दहेज़ प्रथा ये स्थितियाँ स्त्री के लिए एक विशेष परिस्थिति के अनुसार ही उत्पन्न हुईं। जब विदेशी आक्रमण भारत पर हुआ उस समय घर की बहू बेटियों को इसलिए पर्दे में रखा गया क्योंकि उन्हें उन आक्रमणकारियों से सुरक्षित रखा जा सके। 

सती प्रथा, यह स्थिति भी स्त्रियों ने ख़ुद ही स्वीकार की थी। पुरातन समय में स्त्रियाँ स्वयं स्वेच्छा से अपने मृत पति के साथ चिता में देह त्याग करती थीं। दहेज़ प्रथा, जब राजा या रईस अपनी कन्याओं का विवाह करते थे तो वे अपनी स्वेच्छा से अपनी कन्याओं को धन दान स्वरूप देते थे। किन्तु समाज नें इसका प्रारूप बदलते-बदलते इसको एक प्रथा का रूप दे दिया। जो एक समय में स्त्रियों पर जबरदस्ती थोपा जाने लगा। यहाँ इसका विरोध निश्चित हो गया जिसका विरोध आधुनिक समय में भी चलता आ रहा है। 

ऐसे ही आधुनिक नारी स्वरूप की बात करते हैं। आज के नारी को समाज में हर अधिकार प्राप्त है शिक्षा, शासन, स्वतंत्रता और आधुनिक नारी उसका भरपूर उपयोग कर रही है। वह उन्नति के चरमशिखर पर पुरुषों के समतुल्य भागीदारी निभा रही है। किन्तु अगर विचार करें तो इस आधुनिकतावाद में नारी का स्वरूप कुछ विकृत सा नहीं हो गया है? आज भारतीय जीवन में पाश्चात्य रंग रूप तो घुला है पर इसका प्रत्यक्ष असर स्त्रियों पर ही दिखायी देता है। समाज की मर्यादा को लाँघते उनके वस्त्र, मद्य पान, बार में रातों तक पुरुषों के साथ उनका नाचना और आधुनिक भारतीय सिनेमा ने स्त्रियों की छवि को एकदम विकृत-सा कर दिया और यह कार्य भी स्त्रियाँ स्वेच्छा से ही स्वीकार कर रही हैं। क्योंकि अब उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता है और पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है और यह समाज के उस उच्च वर्गीय धन पशुओं के जीवन शैली का एक अंग बन गया है और जिससे आज मध्य वर्ग और निम्न वर्ग भी अपने को अछूता नहीं रख पा रहे हैं। इसका सीधा असर भारतीय समाज पर पड़ता दिखायी देगा जो पुरातन देवतुल्य भारत भूमि के लिए विचारणीय और शोचनीय विषय का बोध सामने लाता है। और अगर विचार करें तो यह आधुनिकतावाद स्त्रियों पर ही हावी होता क्यों दिखायी देता है? क्या नारी-स्वतंत्रता का यही प्रारूप है? या इससे भिन्न भी कुछ और नारी-परिवर्तन अभी शेष है। 

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