अमरकंठ से निकली रेवा
काव्य साहित्य | कविता प्रद्युम्न आर चौरे27 May 2016
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
वादियाँ सब गूँज उठीं और
वृक्ष खड़े प्रणाम किये।
तवा, गंजाल, कुण्डी, चोरल और
मान, हटनी को साथ लिये।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
कपिलधार से गिर कर आई
जीवों को जीवन दान दिये।
विंध्या की सूखी घाटी में
वन-उपवन सब तान दिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
सात पहाड़ों से ग़ुज़रे ये
सतपुड़ा की शान है।
प्राकृतिक परिवेश की रानी
पंचमढ़ी की जान है।
ओंकारेश्वर में शिव शंकर
स्वयं खड़े प्रणाम किये।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
इस बस्ती में आकर
ख़ुद को विकट विपदा में डाल दिया।
इंसानों के वेश में बेठे
शैतानों को पाल लिया।
यहाँ पग-पग पर पाखंडी बैठे
कर्मकाण्ड के हथियार लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
पहले तुझमे झाँककर
लोग ख़ुद को देख जाते थे।
मन, ज़ुबां की प्यास बुझाने
तेरे दर पर आते थे।
आज तेरे किनारों से लौटा हूँ
मट-मैली मुस्कान लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
तू रोती भी होगी तो हम
देख ना पाते हैं।
तेरे आँसू तुझसे निकलकर
तुझमें ही मिल जाते हैं।
कड़वे-कड़वे घूँट दर्द के
तूने घुट-घुट कर ही ग्रहण किये।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
कष्ट देकर और फिर माँ कहकर
गज़ब का दाँव खेला है।
तेरा धीरे-धीरे सूखना
नेहले पे फिर देहला है।
धिक्कार है उस समाज पे जो
तुझे मारकर ख़ुद जिये।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लिये।
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