अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बेटियाँ

 

कौन देखे आँसू मेरे, 
माई री! मैं तो मुँह छुपा कर रोयी हूँ। 
एक बार तूने कहा था मुझे, 
लड़की हो, बड़ी भाग्यवान हो
झूठ था माई, देख आज मैं
अपने ही जन्म पर लजाई हूँ। 
 
माई री! तू तो कहती थी बचपन में मुझे
बेटियाँ देवी का रूप होती हैं। 
वो लक्ष्मी होती हैं, 
सरस्वती होती हैं, 
अन्नपूर्णा होतीं हैं, 
दुर्गा होती हैं, 
काली होती हैं। 
पर, कभी तूने ये नहीं बताया माई री! 
कि वो बीच बाज़ार शर्मसार भी होती हैं। 
बेटियाँ सड़कों पर निर्वस्त्र जहाँ घुमाई जाती हैं, 
माई री, वहाँ कौन सी देवी पूजी जाती है? 
तूने मुझे झूठ क्यूँ सिखाया माई
कि बेटियाँ देश की लाज होती है। 
 
बलात्कार कर सड़कों पर फेंकी जाती हैं, 
भीड़ में नग्न घुमाई जाती हैं। 
कभी तूने बताया नहीं माई कि
सोशल मीडिया के पन्ने पर बने बटन से, 
बेटियों की इज़्ज़त भी
लाइक और शेयर की जाती है। 
निर्वस्त्र खड़ी बेबस दो बेटियाँ, 
देखने जुटी हज़ारों की भीड़ है। 
किससे आस लगाऊँ यहाँ
कोई कृष्ण नहीं, माई देख ये तो
दुर्योधन और दुःशासन की भीड़ है। 
सरकारें कुर्सी पर बैठी रहती, 
नियम-क़ानून सब बन्दी हैं, 
यहाँ राजा धृतराष्ट्र है
सत्य कहने की पाबंदी है। 
सच तो ये है माई री, 
द्रौपदी के जैसे हम आज भी
सभा के बीच लज्जित की जाती हैं, 
तो अब तुम झूठ ना कहो माई कि
हम देवियों-सी पूजी जाती हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं