क्यूँ ठहरी हूँ इस मोड़ पर
काव्य साहित्य | कविता दीपिन्ति कटारिया15 Sep 2023 (अंक: 237, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
क्यूँ ठहरी हूँ इस मोड़ पर,
पता नहीं।
जो सफ़र अभी शुरू भी ना हुआ था,
वो ख़त्म-सा होता नज़र आता है।
तिनका-तिनका जो ख़्वाब बुना था,
आज वो आँखों से दरिया बन बहता है।
क्यूँ ठहरी हूँ इस मोड़ पर,
पता नहीं।
बड़ा भरम था हमें अपने रिश्तों पर,
अब तो हर रिश्ता पराया-सा लगता है।
जिन उम्मीदों के भरोसे बैठे थे,
उन उम्मीदों का हर दावा झूठा-सा लगता है।
क्यूँ ठहरी हूँ इस मोड़ पर,
पता नहीं।
जिनके वक़्त में हम, एक लम्हा भी ना थे
वो हमसे हमारा वक़्त माँगते हैं।
पल-पल कर ख़र्च हुए सब सपने,
उनके ख़्वाब सवाँरने में, इक़तिज़ा है उनकी कि
वो अब उन सपनों की खुरचने भी माँगते हैं।
इक़तिज़ा=आशा, आकांक्षा, चाह, ख़्वाहिश
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