एक शिक्षक की सेवा निवृति
आलेख | ललित निबन्ध डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव1 Mar 2015
आज वह ककहरा और बारह खड़ी की ज्योति सेवानिवृत्त हो रही है जो असंख्य वैज्ञानिकों अर्थशास्त्रियों चिकित्सकों अध्यात्म गुरुओं में इच्छा से या बलात् जलती रहेगी। वह छोटा “अ” जो असंख्य अनहद् नाद होकर कर निनादित हो रहा है, सेवानिवृत्त हो रहा है।
यह “अ” एवं “एक” ही वे किनारे हैं जिन्होंने एक झरने को समुद्र बताया अन्यथा तो माँ ने उन्हें दूध पिला कर पाठशाला में छोड़ दिया था। माँ और बाप का बनाया वह मांस का लोथड़ा शिक्षक ने ही रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर सी.वी. रमण और मोहनदास करमचन्द गाँधी में तब्दील किया। वह शिक्षक ही सुनीता विलियम्स बन कर अन्तरिक्ष में घूम रहा है। शिक्षक का सिखाया हुआ वह “अ” ही है जो असंख्य अर्थशास्त्रों, वैज्ञानिक पुस्तकों, कला की पुस्तकों में ज़िन्दा हैं। कितने वैज्ञानिकों, चिकित्सकों या कलाकारों को याद होगा कि वह शिक्षक सेवा निवृत हो रहा है या उस शिक्षक की संतान भी थी जिसकी शादी में वे लोग नहीं आ पाये?
व्यवस्था ने उस शिक्षक के सर्वोत्तम वर्षों एवं क़ाबिलियत को साल दर साल वैज्ञानिकों, कलाकारों एवं अर्थशास्त्रियों में ढाला है। वह शिक्षक ही दवाइयाँ बन कर रोगों को ठीक कर रहा है और गणित के नये सूत्र बन कर और नये सूत्रों में ढल रहा है। वही दर्शन शास्त्र के सिद्धांतों में ढल रहा है। योगीराज भगवान कृष्ण, काश आपने गीता के सूत्रों में एक सूत्र भी गुरु सान्दीपनि को समर्पित किया हो तो! भगवान राम के रूप में हम गुरु विश्वामित्र एवं गुरु वशिष्ठ की आराधना करते हैं। एवं भगवान कृष्ण के रूप में गुरु सान्दीपनी की। हालाँकि आप स्वयं विश्व गुरु बन गये। मेरा सिखाया “अ” भूलने पर अल्लाह रहता तो है पर तुम पर प्रकाशित नहीं होता। अच्युत, च्युत हो जाता है। ओम तुम पर प्रकाशित नहीं होता। हर गणना “एक” की ही पुनरावृत्ति है। ये भाषा, ये गणित जो आकाश में तैर रहे हैं, मेरे ही सिखलाये हुए हैं। इन्हीं के कारण तुम्हारा नाम है व इन्हीं के कारण विश्व की हर वस्तु का नाम है। “अ” के हटने पर हर अक्षर अपूर्ण हो जाता है।
ये अक्षर और संख्या अनन्त काल से ऐसे चले आ रहे हैं। बस तुम इन्हें जानते नहीं थे। मैंने तुम्हारी इस लिखित रूप में इनसे पहचान करवाई। मुझे भी तुमसे पहले इन्हें सीखना पड़ा है। तुम्हारे माँ-बाप ने जाकर कुछ शब्दों का ज्ञान तुम्हें करवाया था, पर तुम्हें जानते नहीं थे। तुम सब ने पाठशाला में आकर इन्हें पहचाना। ये काग़ज़, ये क़लम और ये कम्प्यूटर इन्हीं अक्षरों के कारण हैं।
तुम नहीं जानते कि मैं ही तुम्हारे अन्दर उपस्थित हूँ। मेरे द्वारा पढ़ाये गये हर विद्यार्थी में मैं ही बीज रूप स्थापित हुआ और पल्लवित हो रहा हूँ। तुम सब मिट्टी हो और मैं बीज हूँ, जो तुम्हारे द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी ज़िन्दा रहूँगा।
वह अनन्त “अ” तुम्हारे अन्दर उपस्थ्ति था पर तुम उसे जानते नहीं थे। शिक्षक ने ही तुम्हारा उससे परिचय करवाया। शिक्षक ने ब्रह्मा बनकर तुम्हारे अन्दर ज्ञान की सृष्टि की, विष्णु बन कर उस ज्ञान की रक्षा की एवं महेश्वर बन कर तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहे। संस्कृत में सही ही कहा है
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुर्रूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
तुम अपने अन्दर के गुरु को ज़िन्दा रखना। जब तक तुम अपने अन्दर के गुरु को ज़िन्दा रखते हो तब तक तुम राम बने रहते हो। जब तुम उन्हें मार देते हो तब रावण बन जाते हो। तुम्हारे अन्दर उपस्थित तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा गुरु है। उसे ज़िन्दा रखो। उसी के प्रकाश में चलते रहो। अपने अन्दर की आत्मा में से “अ” को मत मरने देना। वही आत्मा है, वही गुरु है, वही तुम हो। “तत् त्वम् असि।” अनन्त का “अ” हटाओगे तो उसका अन्त हो जायेगा। सबसे पहले सिखाये हुए उस एक को ज़िन्दा रखना। अगर उसे हटा दिया तो सारी संख्यायें मर जायेंगी। एक है तो अनेक है। वह एक ही तुम्हारा गुरु है।
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