होली हटक्कली
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव1 Mar 2015
सज धज वह होली में आई।
मन की चटकी एक चटक्कली॥
मैंने सोचा की अब बीबी।
फटका देगी एक फटक्कली॥
चलें मायके इस होली पर।
बोली मटकी ज़रा मटक्कली॥
मैंने उसको मना किया तो।
गले लटक गई मेरी लटक्कली॥
मैं बोला ख़र्चे से डर तू।
सुन मेरी तू अरे मटक्कली॥
होटल में चलते हैं खाने।
मेरी लटकन जान लटक्कली॥
ग़ुस्सा होकर रूठ गई वह।
पैर पटकली रही पटक्कली॥
जाने कब वह बाहर निकली।
और सटक गई कहीं सटक्कली॥
मेरे मन में चिंता जागी।
कहाँ अटक गई हाय अटक्कली॥
थाने पहुँचा रपट लिखाई।
भटक गई हैं कहीं भटक्कली॥
दस हज़ार दो दिन में फुक गये।
झटका दे गई मुझे झटक्कली॥
पर दो दिन में वापस आ गई।
फटकारा मेरी फटक्कली॥
वह रोकर बोली तुमको मैं।
रही खटकती सदा खटक्कली॥
मैं तो रही मायके दो दिन।
चाहे तो कह दो सटक्कली॥
मैंने सुन कर माफ़ी माँगी।
भूल गटक मेरी गटक्कली॥
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