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विज्ञान और संस्कृति का परस्पर निर्वाह

 

बौद्ध दर्शन में धर्म को यान कहा गया है। यान का तात्पर्य है उत्कर्ष का मार्ग। इसी आधार पर बौद्ध धर्म की दो मुख्य शाखायें हुई यथा हीनयान एवं महायान। यही धर्म की परिभाषा अर्थात्‌ यान की भाँति उत्कर्ष की ओर ले जाने वाले मार्ग को धर्म कहना चाहिये। 

‘शरीरं धारयति यः स धर्म’ एक अपूर्ण परिभाषा है। शरीर धारण तो विषाणु एवं सूक्ष्म जीवाणु से लेकर सिंह एवं मनुष्य भी करते हैं। पर शरीर धारण के लिये कोई भी मार्ग अपनाने को मेरे विचार में धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म को परिभाषित करना सरल नहीं है। पर हर धर्म के कुछ मुख्य घटक होते हैं। अधिकतर धर्मों के एक प्रवर्तक पुरुष रहते हैं। जैसे क्रिश्चियन के जीसस क्राइस्ट, इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (हालाँकि इस्लाम के प्रवर्तक पैग़म्बर इब्राहीम बतलाये जाते है) जैन धर्म के भगवान महावीर (पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव कहे जाते हैं) बौद्ध धर्म के भगवान बुद्ध इत्यादि कहते हैं। हर पदार्थ का अपना अपना धर्म होता है। पानी का धर्म आद्रता है, वायु का शोषण करना है, अग्नि का प्रकाश है, पृथ्वी का पुण्य गन्ध है (पुण्यो गन्धो पृथिव्याम्) इत्यादि। श्री व्यास ने महाभारत में भगवान कृष्ण से श्रीमद् भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के 35 वें श्लोक कहलवाया है। 

“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्” या “धर्म संस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे”

यह किस धर्म के बारे में कहा है स्पष्ट नहीं है। वैदिक साहित्य में वस्तु के गुण को ही धर्म कहा गया है। 

दूसरी ओर जहाँ एक निर्जन टापू पर अकेला व्यक्ति धर्म का पालन कर सकता है वहीं सम्प्रदाय के लिये एक-सी परम्परा का पालन करने वाले व्यक्तियों का समूह आवश्यक है। जहाँ परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लम्बवत चलती है वहीं सम्प्रदाय एक पीढ़ी के कई व्यक्ति बनाते हैं। कोई आवश्यक नहीं कि एक परम्परा केवल एक धर्म ही अपनाता हो, एक ही परम्परा पालन कई धर्म एक साथ कर सकते हैं। जैसे शवदाह को लें, हिन्दु, जैन, सिख इत्यादि समान रूप से करते है, इसी तरह क्रिश्चियन, मुसलमान आदि शव को समान रूप से दफ़नाते है। परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। संस्कार, संस्कृति से बना है। ‘कृ’ धातु में सम् उपसर्ग पूर्वक इसकी व्युत्पत्ति हुई है। बौद्ध धर्म के अनुसार जो भी कार्य किया जाता है उसकी छाप चेतना पर पड़ती है। उसे संस्कार कहते हैं। उनके अनुसार संस्कार जन्म दर जन्म ज़िन्दा रहते हैं। 

संस्कार का एक तात्पर्य परिष्कार भी होता है। एक ही संस्कार का पालन करने वाले व्यक्ति अलग-अलग देशों में रह सकते हैं। जैसे क्रिश्चियन ब्रिटेन में भी शव दफ़नाते हैं और भारत वर्ष में भी। कुछ विद्वान एक भौगोलिक क्षेत्र से परिवृत्त रीति रिवोजों को संस्कृक्ति कहते हैं जैसे भारतीय संस्कृति या अमेरिकन संस्कृति। कुछ लोग मात्र दो भागों में संस्कृति को विभक्त करते हैं यथा पूर्व की संस्कृति एवं पश्चिम की संस्कृति। इसका तात्पर्य वे लेते हैं मर्यादित एवं उन्मुक्त संस्कृति से। इस लेख का मुख्य आशय उन सामान्य तत्वों की विवेचना करना है जो विज्ञान एवं संस्कृति जीवन को परस्पर जोड़ते हैं। हम कुछ सामान्य तत्वों का अन्वेषण निम्नानुसार कर सकते हैं:

1. प्रामाणिकता: विश्व का सबसे पहले आविष्कार अग्नि है। कि बीमारियाँ सूक्ष्म जीवाणुओं के कारण होती है यह जानने के पूर्व ही हज़ारों सालों से खाने को उबाल कर बनाया जाता है। इसी तरह उबालने से ‘फ़ाइबर’ सुपाच्य हो जाते हैं इसका स्पष्टीकरण करण नहीं था पर खाना उबाला जाता था। दूध का किण्वणीकरण होने पर दही बनता है यह हज़ारों साल बाद ज्ञात हुआ। भोजन सम्बन्धी ऐसी अनेक क्रियायें हैं जहाँ विज्ञान एवं संस्कृति साथ साथ सहमत हुई हैं।

दूसरी और शवों के जलाने को लिया जाये। इससे अधिक वैज्ञानिक तरीक़ा उन्हें ठिकाने लगाने का नहीं हो सकता। इसके साथ ही सारे विषाणु एवं जीवाणु समाप्त हो जाते है एवं शव के सड़ने के कारण सम्मावित प्रदूषण समाप्त हो जाता है। यह एक ज्ञात वैज्ञानिक तथ्य है कि वृक्ष ओषजन बनाते हैं, पानी को ज़मीन में स्थिर करते हैं, पृथ्वी का क्षरण रोकते हैं और ऐसे अनेक कार्य करते हैं जो ईधन एवं खाद्य पदार्थ देने के अलावा भी प्राणियों के अस्तित्व के लिये आवश्यक होते हैं। अतः वृक्षारोपण एवं वृक्षों की पूजन करना उनके प्रति आदर दर्शाने का एक मूल्यवान संस्कार है। 

पच्चीस वर्ष तक की उम्र तक ब्रह्मचर्य का पालन करना एक वैज्ञानिक संस्कार है। क्योंकि उस समय तक मन एवं शरीर गृहस्थ धर्म के योग्य नहीं हो पाता कि पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर 365 दिन में लगा पाती है यह बहुत बाद में विज्ञान स्वीकारा पर हिन्दु पंचांग हज़ारों सालों इस पर आधारित गणना से सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण का ठीक-ठीक अनुमान एवं तीन सौ साठ दिन का वर्ष मानता रहा है। हिन्दुओं ने तो ‘लीप’ महीने की व्यवस्था भी कर रखी है। आख़िरकार ‘ग्रेगेरियन’ कलेण्डर में भी तो हर चार वर्ष पश्चात् फरवरी को 29 दिन की मानता है। ग्रहों की गति के आधार पर हिन्दुओं ने ज्योतिष विज्ञान की जो नींव रखी है वह अभी तक अकाट्य है। परामनोविज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ सांस्कृतिक तरीक़े से विज्ञान का निर्वाह हो सकता है। आधुनिक विज्ञान ने तो अब हिप्नेटिज़्म का महत्त्व समझा है जबकि माण्डूक्य उपनिषद में हज़ारों वर्ष पूर्व ही सुषुप्ति के बारे में कहा है:

“एष सर्वेश्वर, एष सर्वज्ञः एष भवाप्ययौ हि सर्व भूतानाम!” 

इसी तथ्य के आधार पर योग विकसित हुआ है जिस पर आधुनिक विज्ञान अब ध्यान केन्द्रित कर रहा है। (योग एवं ध्यान तो भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं) ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जो प्रामाणिकता के आधार पर विज्ञान और संस्कृति को परस्पर जोड़ते हैं। 

2. विवेकशीलता: कोई भी संस्कृति बग़ैर विवेकशीलता के विकसित नहीं हुई है। जैसे चीलों की प्रजाति मृत जीव जन्तुओं को खा कर अस्तित्व बनाये हुए है। अब यदि शव दफ़ना दिये जायें या जला दिये जायें तो चील, कौव्वों को खाना ही न मिले अतः पारसी लोग शवों को कुओं में फेंक देते हैं जिससे यह प्रजाति नष्ट न हो। बाइबिल में कहा है कि शरीर से शरीर एवं आत्मा से आत्मा पैदा होती है अतः महाभारत काल में वृद्ध लोगों के जंगल में विलीन होने का रिवाज़ था जो आजकल असम्भव है। आज औषधि-विज्ञान कहता है कि शिशु को 6 माह तक माँ के दूध के अलावा कुछ नहीं देना चाहिये, पानी भी नहीं! यह प्रथा कई सम्प्रदायों में पहले से ही प्रचिलित थी पर डॉक्टर इस पर हँसते थे। 6 माह पश्चात ही जब शिशु के दाँत निकलना प्रारम्भ होते थे, अन्न प्राशन किया जाता था। महिलाओं में मासिक धर्म के समय पुरुषों को दूरी रखने के लिये कहना भी विवेकशीलता ही है अन्यथा दोनों के संक्रमणित होने की सम्भावना रहती है। एक पत्नी व्रत एक अत्यधिक मूल्वान संस्कार है। इससे दोनों व्यक्ति यौन रोगों एवं एड्स से बचे रहते हैं। यौन जनित रोगों में पीलिया, कुछ केन्सर सहित लगभग 100 रोग आते हैं मात्र गोनोरिया, सिफलिस या एड्स ही नहीं।

परस्पर रिश्तेदारों में विवाह करने से मानसिक विकलांगता सहित कई जन्मजात एवं अनुवांशिक बीमारियाँ हो जाती हैं। इसलिये हिन्दुओं में क़रीबी रिश्तेदारों में शादियाँ नहीं होती हैं। 

ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो विज्ञान और संस्कृति जीवन को परस्पर जोड़ते हैं। 

3. प्रत्वरता: विज्ञान में एक अवधारणा होती है जिसे बाद में प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया जाता है। जिसे सिद्ध न किया जा सके वह विज्ञान की परिधि में नहीं आता। इसी तरह जो प्रथा लाभदायक न हो उसे संस्कृति की परिधि से हटा दिया जाता है। अरब देशों में परदा प्रथा वहाँ की आवश्यकता थी क्योंकि वहाँ रेतीली हवाओं में असंख्य रेत के कण उड़ते थे जो आँखों में जा सकते थे। गुरुकुलों में बच्चे दुनिया की आपाधापी से अलग अनुशासन सीखते थे एवं अध्ययन करते थे। हल्दी के एवं अन्य मसालों के गुण पहले ही पहचान लिये गये थे अतः वे भारतीयों व्यंजनों के अभिन्न अंग बन गये। कि धरती के गर्भ में भी पानी रहता है यह स्थान-स्थान पर बने पुरातन कुंओं, बाबड़ियों, तालाबों द्वारा पूर्वजों की प्रखरता को वैज्ञानिक दृष्टि से खरा उतारता है। 

4. सदुपयोग: यह घटक बहुत मज़बूती से विज्ञान को संस्कृति से जोड़ता है। विस्फोटकों का दुरुपयोग संस्कृति का अंग नहीं बन सकता। जन्म दिन पर, या विवाह पर पटाखे तो चलाये जा सकते हैं, अणु बम नहीं। विद्युत से प्रकाश एवं अन्य उपयोगी उपकरण काम में लाये जाने चाहिये ‘इलेक्ट्रिक चेयर’ नहीं। विज्ञान का सदुपयोग संस्कृति का अंग बन सकता है दुरुपयोग क़तई नहीं। 

5. सामाजिकता: विज्ञान का एक लाभ अवश्य हुआ है कि सुविधायें कुछ लोगों के हाथ में सिमट कर नहीं रह पायीं। वे सर्वजन हिताय, सर्व जन सुखाय हो गईं। 

6. परमार्थ परायणता: स्कूलों की एवं अस्पतालों की अवधारणा एक आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा है। आज कई आश्रम एवं धार्मिक संस्थान मात्र उपासना के माध्यम न रह कर निःशुल्क चिक्तिसालय चला रहे हैं जहाँ अत्यन्त महँगे आधुनिकतम उपकरण ग़रीब मरीज़ों की सेवा, कर रहे हैं। उन पवित्र स्थानों पर भक्त लोग भी श्रद्धापूर्वक उनकी सेवायें दे रहे हैं।

ये उदाहरण विज्ञान एवं सस्कृति, दोनों को परमार्थ परायणता के मुद्दे पर एक स्थान पर आना दर्शाते हैं। भक्ति और विज्ञान, दानशीलता और विज्ञान, ज्ञान और विज्ञान, सामाजिकता और विज्ञान, सदुपयोग और विज्ञान इन स्थानों पर एक साथ कार्य करते हुए परमार्थ करते हैं। 

7. विज्ञान एवं संस्कार का परस्पर सम्बन्ध: बिना भावना के विज्ञान अनुपयोगी है एवं बिना तथ्यों के संस्कार बोझ। दोनों में परस्पर प्रतिक्रयायें होती रहें तो दोनों का समग्र विकास होगा जो कि मानव उन्नति के लिये आवश्यक है। मेरी पदस्थापना सन् 1984 में खुरई तहसील में शासकीय चिकित्सक के पद पर थी। उस ब्लॉक में क्रिश्चियन बहुल गाँव है बाग्थरी। उस गाँव के सभी घरों में गोबर गैस से प्रकाश होता है, खाना पकता है एवं शेष गोबर की खाद बनाई जाती है। गाय को ऐसे ही नहीं पूजा जाता। वैकल्पिक ऊर्जा का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। केवल यह प्रयोग हमें पशु संरक्षण, सस्ती खाद, निःशुल्क ईधन, निशुल्क खेतों को जोतना इत्यादि के बारे में शिक्षा देता है। इसके साथ ही शुद्ध दूध एवं अन्य खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं सो अलग। इस तरह हम देखते हैं कि ऐसे अनेक मिलन बिन्दु हैं जो विज्ञान एवं संस्कृति को परस्पर जोड़ते हैं। इनकी लिस्ट बहुत लम्बी है। इस परिचर्चा के माध्यम से लेखकों एवं पाठकों को एक विचारोत्तेजक विषय मिला है जो मानव जाति के लिये अत्यन्त लाभदायक होगा। 

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