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गुरु-शिष्य की परंपरा अति प्राचीन

 

भारत में गुरु शिष्य की परमपरा बहुत ही प्राचीन है, और यह परम्परा सदियों से चली आ रही है, जो आज भी हमें देखने को मिलती है। भारतीय प्राचीन इतिहास में जब हम वेद, पुराण, गीता-भागवत, महाभारत, रामायण के पन्ने पलटते हैं तो यह भान होता है कि उस युग में चाहे वह सतयुग हो, त्रेता हो, द्वापर हो या कलयुग हो, सभी युगों में गुरु का स्थान सबसे ऊँचा, और सर्वोपरि माना गया है, और इसी गुरु के मार्गदर्शन में सारे धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक राजनैतिक, आधात्मिक, कार्य सम्पन्न हुआ करते थे। गुरु शिष्य परम्परा के इतिहास में चाहे वह गुरु वेदव्यास और गणेश जी हों, चाहे विश्वामित्र और राम, चाहे संदीपन और कृष्ण हों, चाहे द्रोणाचार्य और पांडव तथा एकलव्य हों, चाहे चाण्क्य और चन्द्रगुप्त हों, चाहे उद्दालक और आयोदधौम्य हों सभी में हम यह पाते हैं कि यहाँ पर गुरु और शिष्य की परम्परा सर्वोपरि थी। सभी ने इस परंपरा का बहुत सुंदर रीति से पालन किया, और गुरु से ज्ञान प्राप्त कर, गुरु दक्षिणा के रूप में उसे पुनः बाँट देते थे। और गुरु को ऊँचा मानते हुए अपना सर्वस्व समर्पित करते थे। इसीलिए गुरु के स्थान को ऐसा कहा गया:

“गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥”

यहाँ पर गुरु देवो से बढ़कर परब्रह्म के रूप में माना गया। 

गुरु का शाब्दिक अर्थ होता है, “अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाना है।” गुरु दो वर्णों के मेल से बना है पहला वर्ण “गु” अर्थात्‌ अज्ञानता का अंधकार। और दूसरा वर्ण है “रु” अर्थात्‌ ज्ञान का प्रकाश। गुरु वह है जो हमें भौतिकता से उठाकर आध्यात्मिकता की ओर ले जा सके, अज्ञानता से प्रकाश की ओर ले जा सके। अर्थात्‌ हमें ज्ञान के उस उच्च शिखर पर ले जाये जहाँ दिव्य-ज्ञान का साक्षात्‌कार हो सके, और हम अपने आप को मोक्ष के द्वार पर ले जा सके तभी तो कबीर कहते हैं:

“सद्गुरु की महिमा अनन्त, 
अनन्त किया उपगार। 
लोचन अनन्त उघाड़िया, 
अनन्त दिखावन हार ॥”

गुरु की महिमा इस बात से भी स्पष्ट होता है कि सभी युगों में गुरु को सर्वोपरि स्थान दिया गया है, गुरु ही हमें ईश्वर, धर्म, जीव, जगत, शरीर, आत्मा, अध्यात्म सभी के बारे में ज्ञान कराता है, गुरु के बिना हम निरर्थक हैं। इसीलिए कहा गया:

“गुरु गोविंद दोउ खड़े, 
काके लागू पाँय। 
बलिहारी गुरु आपनो
गोविंद दियो बताया ॥”

भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य की परंपरा अति प्राचीन है, इसमें गुरु अपने आध्यात्म ज्ञान को अपने शिष्यों को प्रदान करते रहे हैं। तत्पश्चात् वही शिष्य गुरु के रूप में उसे पुनः अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं, ज्ञान का क्षेत्र विशाल है जहा कला-संगीत साहित्य, ज्योतिष, धर्म, विज्ञान, जीव-आत्मा आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। 

भारतीय इतिहास में गुरु को एक समाज सुधारक के रूप में भी देखा जाता रहा है जो समाज में आदर्श, नैतिकता, मर्यादा, संस्कार, और नई चेतना का संचार करता था इसीलिए गुरु अर्थात्‌ शिक्षक को ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी बड़ा माना गया। 

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा की नींव सांसारिकता से शुरू होकर आध्यात्मिक सार्वभौम परम् आनंद की प्राप्ति तक जाता है। और इसी को “मोक्ष या परमधाम कहते हैं” और सभी मानव जीव का एक यही अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। 

गुरु ज्ञान का प्रकाश फैलाने हाथ में ज्ञान का प्रकाश लेकर खड़ा रहता है, जो अपने शिष्यों को मोह माया की तिलांजली देकर मोक्ष प्राप्त करने अपने साथ चलने का आह्वान करता है। 

अर्थात्‌ गुरु एक मशाल का प्रतीक है और शिष्य एक प्रकाश का। 

और इसीलिए कबीर कहते हैं:

“कबीरा खड़ा बाज़ार में, 
लिया मुराड़ा हाथ। 
जो घर जारय आपना
चलय हमारे साथ ॥”

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