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हादसा

 

हादसा हुआ है। कुछ विस्फोट होने जैसा। विस्फोट के बाद परिवेश में कुछ अफ़रा-तफ़री और मातम छा जाता है। यही हाल है घर-परिवार में। हरेक के मन में अफ़सोस है। अगर चीज़ों को रखने में लापरवाही नहीं की होती; काश, इतना बड़ा नुक़्सान न हुआ होता। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे हैं। इतने बड़े हादसे के बाद घर के लोग किस तरह से पेश आ रहे हैं, यह सब के लिए एक कौतूहल का विषय है। परिवार का नुक़्सान होने से किसी-किसी का मन ख़ुश भी हो रहा होगा। जब किसी का बड़ा नुक़्सान हो जाता है तो कुछ लोग अपने को काफ़ी सतर्क और बुद्धिमान भी समझने लगते हैं। 

कल तक घर परिवार में कितना सुन्दर परिवेश था। घर के एक सदस्य का स्वभाव बिगड़ जाने से पूरा माहौल आज कुछ इस तरह खौल रहा है, मानों संसार में कुछ भी ठीक नहीं है। अक़्सर घटना हो जाने के बाद लोग एक दूसरे पर छींटाकशी कर अपने को निर्दोष साबित करने का कोशिश करने लगते हैं। यहाँ भी इसका कोई व्यतिक्रम नहीं दिखता। पर लोग काफ़ी संयमित व्यवहार कर रहे थे। जो नुक़्सान होना था वह हो चुका। अब उसे लौटाया नहीं जा सकता। पर जिसने यह नुक़्सान कराया उसके स्वभाव को सुधारने की चुनौती सामने है। 

समाज में ज़्यादातर लोग एक दूसरे का भला नहीं देखना चाहते। उन लोगों को जलन होने लगती है। किसी वक़्त कुछ सुयोग मिलते ही चिनगारी को भड़काने का काम कर ही देते हैं। जो इस षडयंत्र के चंगुल में फँसता है उसे इतना भी मालूम नहीं होता कि वह किसका क्या बिगाड़ रहा है। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। अपनी सरलता का फ़ायदा कौन, किस काम के लिए उठा रहा है यह तो उसको पता ही नहीं चला। जब भी कोई बड़ा हादसा होता है परिवेश कुछ इसी तरह का होता है। 

जब हादसा हो चुका तब उनको पता चलता है कि इसकी शुरूआत कब और कहाँ से हुई। अपने समझे गए लोग ही इसमें आग झोंकने में लगे हुए थे। जब दूसरे का नुक़्सान कराना होता है तब लोग यह नहीं देखते कि बाद में उनका भी यही हश्र होने वाला है। एक दूसरे का नुक़्सान पहुँचाने की मानसिकता लेकर समाज में बिखराव का माहौल पैदा कर रहे होते हैं। 

बात बच्चों के ऑनलाईन पढ़ाई से शुरू होती है। कोरोना महामारी के चलते जब विद्यालय बंद करने पड़े तब शिक्षा के विकल्प माध्यम के रूप में मोबाइल के ज़रिए ऑनलाईन पढ़ाने की शुरूआत की गई। तब से बहुत सारे बच्चों को मोबाइल की आदत पड़ गई। इंटरनेट मोबाइल के मिल जाने से बच्चे दिनभर मोबाइल खेलने में ही व्यस्त रहने लगे। इन में से कुछ बच्चों का झुकाव मोबाइल गेम की ओर होने लगा। ऑनलाईन पाठ के दौरान मोबाइल नेटवर्क के ज़रिए तरह-तरह की गेम आदि के विज्ञापनों ने बच्चों को इस ओर आकर्षित किया। 

आज के इस भोगवादी प्रवृत्ति में केवल लोगों का पैसा किस तरह निकाला जाए, इसी पर कुछ लोग रात-दिन लगे हुए हैं। बाज़ार संस्कृति ने नीति, नियम, आदर्श सब कुछ समाप्त कर दिया है। अब तो कोई किसी पर मेहरबानी दिखा रहा होता है, वह भी उसे ग़ुलाम बनाने की मानसिकता से। यह कैसा दम-घोंटू माहौल बन गया है। इस दौरान समाज के निचले तबक़े के लोगों का जीना दूभर हो गया है। 

मंगल हाईस्कूल का मास्टर है। अब कुछ साल बचे हैं सेवानिवृत्त होने के लिए। दिन भर स्कूल में पढ़ाता है। बच्चों को अच्छे परामर्श देता है। वह दिल से ही चाहता है कि बच्चों का जीवन सुधर जाए। ख़ुद भी काफ़ी संयमित दिनचर्या का पालन करता है। वह ख़ुद दूसरों के लिए आदर्श बनें, यह चाहता है। स्कूल से लौटकर भी वह पुस्तकें पढ़ने और लिखने के काम में ही लगा रहता है। सब कुछ व्यवस्थित रूप से चलाता है। कोशिश करता है कि उसके कारण किसी का कोई नुक़्सान न हो। 

अपने बच्चे बड़े हो गए। दोनों बेटियाँ थीं। पढ़ लिख कर योग्य हो गईं और उनकी इच्छा अनुसार विवाह भी करा दिए। अब वे अपने संसार में रच बस गए हैं। उसने भाई के बेटों को पढ़ाने का ज़िम्मा भी अपने ही कंधे पर लिया है। वह चाहता है अपने भाई-भतीजे का भी विकास हो। सब कोई इसी तरह से दूसरों की मदद करें तो समाज स्वस्थ एवं सुन्दर होगा। वह ऐसा ही सोचता है। कभी-कभी इस बात पर पत्नी से कहा-सुनी भी हो जाती है। पत्नी चाहती है कि अपने बच्चे जब कि बड़े हो गए हैं, विवाहित होकर घर बसा लिए हैं तो दूसरों का ज़िम्मा हमें नहीं लेना चाहिए। फिर भी वह अपने सोच में अडिग रहता है। वह मानता है कि आदमी को पाखंडी नहीं होना चाहिए। वह जैसा बोलता है उसका अमल उसे अपने व्यवहार में करना चाहिए। जीवन परोपकार के लिए होना चाहिए। 

वह सोचता है संसार बहुत जटिल है। इसे समझ पाना इतना आसान नहीं है। हमेशा अच्छा सोचते रहने पर अच्छे कामों में लगे रहने पर भी उसका ही बुरा बार-बार क्यों हो जाता है? उसके पास इसका कोई जवाब नहीं है। ऐसे कई सवालों से वह अक़्सर टकराता रहता है। वह सोचता है जीवन अच्छाई के लिए है। सरलता से जीवनयापन करना चाहता है। उसका स्वभाव बहुत ही संतुलित है और कभी तड़क-भड़क नहीं दिखाता है। अध्यात्म में रुचि रखता है। सुबह अपने इष्टदेव का स्मरण कर दैनिक काम-काज में लगता है। 

उसका बाल्यकाल बहुत ही कठिनाई से गुज़रा है। हर दिन चूल्हा जलाने की ही दिक़्क़त थी। उन दिनों की याद कर वह सिहर जाता है। तब उसको लगता था यदि खाने-पीने की दिक़्क़त न हो तो वह पढ़ाई में बहुत आगे निकल सकता था। अब उसको नौकरी का वेतन मिलता है। खाने-पीने की दिक़्क़त नहीं है। इसलिए वह लगातार पढ़ने-लिखने में लगा रहता है। अब उसे किसी परीक्षा के लिए नहीं पढ़ना है। वह अख़बारों के लिए लेख रचनाएँ लिखता है। कविता रचता है। अब तो समाज में साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित है। उसकी हिंदी कविता संग्रह को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। 

वह देखता है समाज बहुत बदल चुका है। अपने कहे जानेवाले लोगों का रवैया भी बदल चुका है। लोग अक़्सर गाड़ी ख़रीदने की बात करते हैं। उसके साथियों ने गाड़ियाँ ख़रीद लीं। आलीशान बँगले भी बना लिए। लोग टोकते रहते हैं गाड़ी ख़रीदने के लिए। लेकिन उसे लगता है, जीवन भोग के लिए नहीं, आदर्श के लिए जीना चाहिए। आस-पड़ोस में दुखी ग़रीब लोग रहते हैं। इसलिए उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। वह ऐसा सोचता है। 

उस दिन वह स्कूल से लौटा तो घर का माहौल कुछ ग़मगीन-सा लगा। पत्नी, बेटी और दामाद कुछ बातें कर रहे थे। उसे लगा कुछ ग़लत हो गया है। अचानक पत्नी ने कहा, “मेरा अकाउंट पूरे का पूरा किसी ने ख़ाली कर दिया है।” उसको लगा जीवन में सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है। कैसे हुआ इसका पता लगते ही, उसमें अपने ही भतीजे का हाथ होने की बात सामने आई। पहले तो उसे लगा इस में किसी दूसरे का हाथ है। बाद में भतीजे ने स्वीकार किया कि यह सब उसी ने किया है। लेकिन उसने यह सब क्यों किया इस पर कुछ बोलता नहीं है। 

पिछले कुछ दिनों से अरुण का मिज़ाज ठीक नहीं चल रहा था। दो साल पहले भी पैसे चुराकर मोबाइल गेम खेलने की बात सामने आई थी। उस वक़्त उसे धमका कर मोबाइल से छुटाया गया था। पर फिर से वह इस हरकत का आदी हो गया। इसका घर वालों को कुछ भी पता न चला। वह पढ़ाई के लिए मास्टर के बुलाए जाने के बहाने से बैग लेकर शाम को घर से निकलता था और रात के आठ-नौ बजे घर लौटता था। वह प्लस-टू का विद्यार्थी है। घर के लोग सोचते रहे वह कहीं पढ़ने ही जाता होगा। जब पता चला कि माँ के अकाउंट से लाखों रुपए ग़ायब हो गए, तब उसके कारनामे एक-एक कर सामने आए। पड़ोस के लोगों ने उसकी मदद की। माँ की सरलता का बुरी तरह से फ़ायदा ले कर गूगल-पे के ज़रिए रुपए दूसरों के अकाउंट में ट्रांसफर कर उसी रुपए से मौज-मस्ती करने में ही लगा रहा था। उस दौरान उसका मिज़ाज भी कुछ चिड़चिड़ा सा लग रहा था। कुछ पूछने पर वह चिढ़ जाता था। 

मंगल मास्टर को लगा कि उसने अकेले यह सब नहीं किया है। इस के पीछे माँ की एटीएम, पासबुक के रखने में लापरवाही और मोबाइल जहाँ-तहाँ छोड़ने का भी हाथ है। पासबुक इधर-उधर पड़ी देखकर उसे लगता था कि कभी इसके एकाउंट के पैसे ग़ायब हो सकते हैं। न जाने क्यों चाहकर भी कुछ कहा नहीं था। अब हादसा हो जाने के बाद उसे अफ़सोस होता है कि क्यों उसने उसे सतर्क नहीं कर दिया था। अपने ही भतीजे ने पड़ोस के लोगों के बहकावे में आकर घर के परिश्रम से कमाए धन को ही ऑनलाईन जुआ खेलकर समाप्त कर दिया। फिर भी इतने रुपए उड़ाने के बाद भी उसे होश नहीं रहा। 

मंगल मास्टर नहीं जानता है इस हादसे को अब क्या कहें? क्या इसे नियति माना जाए या और कुछ? किस लिए आदमी का मन इस तरह ख़ुद का धन नष्ट करने में लग जाता है। मोबाइल बहुत कुछ सीखने के लिए भी उपयोगी है। लेकिन इसकी बुराई की ओर ही लोगों का झुकाव क्यों होता है? वह सोचता है पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता। वह ख़ुद भी मोबाइल चलाता है। लेकिन मोबाइल में गेम आदि पर उसका कोई झुकाव ही नहीं है। मोबाइल के ज़रिए अच्छी बातें ही सीखता रहता है। 

आदमी दूसरों को उपदेश देता है। अच्छी-अच्छी, आदर्श की बातें करता है। पर जब हादसे का शिकार वह ख़ुद हो जाता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है। मंगल मास्टर का भी यही हाल है। वह जानता है लाभ हानि जीवन का ही अंग है। लेकिन इस हादसे के बाद उसकी मनस्थिति काफ़ी बेचैन है। मन रुक-रुक कर उसी विषय पर लौट आता है। कक्षा में पढ़ाने के दौरान भी उसे इसी बात का ग़म मन को खाए जाता है। क्या करें, कहीं कोई उपाय सूझता नहीं है। मन घटना को सहज रूप से स्वीकार ही नहीं पाता। जैसे अचानक उसके मन में किसी ने विष घोल दिया हो। मन में दुख है, लेकिन इससे नजात पाने का कोई उपाय नहीं है। 

इस घटना को लेकर दूसरों से चर्चा भी करना नहीं चाहता। लोग चुटकी ले-लेकर हँसेंगे। समय के साथ ही सबकुछ ठीक हो जाएगा। सहानुभूति का ढोंग रचेंगे। भीतर से तो ख़ुश ही होंगे। वह सोचता है और आकाश की ओर देखता है। 

भतीजे अरुण को गाँव के घर में रहने को भेज दिया है। अब उसका स्कूल आना जाना वहीं से चल रहा है। 

मोबाइल की लत, उसके बदमाश साथियों का संग छुड़ाने के प्रयत्न करने में लगा है। नुक़्सान को स्वीकार कर लेने पर भी भतीजे को बिगड़ते वह नहीं देख सकता। बहुत सारे अभिभावकों को इस बारे में सजग करने का मन बना लिया है। यह बहुत उलझा हुआ सवाल है। नई टेक्नोलाजी, नए संयंत्रों की भी ज़रूरत है लेकिन इसकी बुराइयों के प्रति लोगों को सावधान करना उससे भी बड़ी बात है। चुपचाप कितने परिवार इस समस्या का सामना कर रहे होंगे। वह सोचता है। यहीं पर कहानी ख़त्म नहीं होती। कहानी चलती रहती है। 

मंगल मास्टर के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आई हैं। जीवन में हर बार इस तरह की घटना से पहले वह कैसे चूक जाता है। दूर क्षितिज तक पसरी राह को लौट कर देखता है। कुछ दूर जाकर दृष्टि धूमिल हो जाती है। पश्चिम आकाश में सूरज डूबने लगा है। अँधेरा अब ज़मीन पर धावा बोल रहा है। 

वह सोचता है, सूरज डूब गया है। अँधेरे के बाद फिर से सूरज उगेगा। भतीज के कुलत से हुआ यह नुक़्सान भी इस अंधकार का जैसा ही है। कल वह भी सुधर जाएगा। जीवन फिर से पटरी पर चलने लगेगा। 

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